कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, March 26, 2009

दो और दो लाइनां...

दूरी...
जख्म रूहों से इस क़दर बावस्ता हैं, आंख से अश्क की जगह खूं निकलने लगा
लाख चाहा भुलाना तुम्हें मगर ना हुआ, जब भी आहट सुनी तो मचलने लगा

दूर हमसे तू चला, दूर है तेरा गांव
मन भी बस में नहीं, मिले कहां से छांव



बेगारी...
दफ्तर-दफ्तर, पीसी-पीसी, उफउफउफउफ सीसीसीसी
कहां क्रिएटिविटी, कहां है पैशन, कीबोर्ड पे चटनी पीसी

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

भूलना इतना आसान नहीं होता .....