कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, July 26, 2009

प्रेम के प्रचारक: चैतन्य महाप्रभु


18फरवरी, 1486, माघ माह की रात, पूरा खिला चांद यकायक ग्रहण का शिकार हो गया। हर ओर अंधकार छा गया, लेकिन तभी धरा एक और प्रकाश से नहा उठी। यह उजास थी गौरांग की, उनके स्वरूप की-कांति की।
पश्चिम बंगाल में कोलकाता से लगभग 75 मील दूर नादिया जिले के नबद्वीप कस्बे के निवासी जगन्नाथ मिश्र तथा सची देवी के घर जन्मे थे चैतन्य महाप्रभु। माता-पिता ने नाम दिया विश्वंभर। चैतन्य के जन्म से पहले आठ पुत्रियों का जन्म हो चुका था और उनका अवसान भी, इसलिए सशंकित मां ने शिशु चैतन्य को नीम वृक्ष को अर्पित कर दिया। गौरवर्ण देखकर पड़ोसियों-परिजनों ने पुकारना शुरू किया-गौरांग। गौरांग रुदन भी करते, तो हरि-हरि की ध्वनि उठती, इसीलिए सबने उन्हें गौरहरि भी कहा।
वासुदेव सर्वभूमा के विद्यालय में नीति का अध्ययन करने जाते थे, कुशाग्र बुद्धि के स्वामी चैतन्य। यहीं उनकी भेंट न्याय विषय के विद्वान लेखक रघुनाथ से हुई, जिन्होंने दिधीति नामक पुस्तक की रचना की थी। इसी बीच चैतन्य ने न्याय पर एक मीमांसा पुस्तक लिखी। उनकी विद्वत्ता का प्रभाव ही था कि रघुनाथ को लगा, न्याय विषय का उच्च लेखक बनने की उनकी इच्छा अधूरी रह जाएगी, लेकिन सरल हृदय चैतन्य को जब यह पता लगा, तो उन्होंने अपनी पांडुलिपि नष्ट कर दी। चैतन्य बोले, न्याय तो नीरस दर्शन है। मुझे इससे अधिक लाभ न होगा। सच है, जिसका मन जन्म से ही प्रभु चरणों में लग गया, उसे और कुछ कैसे भाएगा। चैतन्य भी ऐसे ही हैं। कान्हा के लिए राधारानी सरीखी भक्ति उनके मन में हमेशा मौजूद रहती है। व्याकरण, तर्क, साहित्य, दर्शन जैसी विधाओं में पारंगत होने के बाद भी चैतन्य ने प्रभु से लगन लगाई। वैसे, भक्ति का पूर्ण संचार गुरु से मिलने के बाद ही हो पाता है, क्योंकि यह विशिष्ट चेतना है। चैतन्य को भी यह गति थोड़े विलंब से मिली। चिंगारी तो उनके व्यक्तित्व में थी, लेकिन विस्फोट होना अभी बाकी था।
चैतन्य पढ़ ही रहे थे, तभी 14-15 साल की आयु में उनका विवाह वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से हुआ। वे समर्थकों और विद्वानों के साथ भ्रमण पर निकले। उद्देश्य था-अपने पांडित्य से बांग्ला समाज को प्रभावित करना और धनोपार्जन करना। चैतन्य ने लक्ष्य में सफलता भी प्राप्त की। घर आने पर पता चला कि पत्नी लक्ष्मी की सांप के काटने से मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद चैतन्य ने विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया।
संभवत: 1509 की बात होगी। 17 साल के गौरांग पिता का श्राद्ध करने के लिए गया गए, वहां गुरु के रूप में संन्यासी ईश्वर पुरी मिले। चैतन्य ने देखा कि गुरु हंसते, रोते, उछलते, नाचते और दोहराते, कृष्णा, कृष्णा! हरि बोल हरि बोल! चैतन्य को भी उन्होंने यही मंत्र जपने की सीख दी। भावुक चैतन्य ने कहा, आदरणीय गुरु! आपकी मुझ पर दया हुई। आपने मुझे संसार से विरक्त किया। मुझे कान्हा के लिए राधा के प्यार से परिचित कराया। मुझे भगवान कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम की ओर आगे बढ़ाइए। मैं कृष्ण प्रेम रस का पान करना चाहता हूं।
गुरु ने कहा, गौरांग, विद्वत्ता का प्रचार छोड़ो, प्रेम का प्रसार करो और चैतन्य इसी राह पर चल देते हैं। जड़ता छूटी, फिर घर भी छूट गया। चैतन्य हर पल यही गुहार लगाते, भगवान कृष्ण, मेरे पिता, तुम कहां हो, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। तुम्ही मेरे सच्चे पिता हो, मां, मित्र, संबंधी और गुरु हो। भावुक गौरांग ने कहा, मैं वृंदावन जाऊंगा, लेकिन साथ के लोग उन्हें नबद्वीप लौैटा ले गए। अंतत: 24 साल की उम्र में केशव भारती ने उन्हें संन्यास का चोला पहनाया, फिर तो चैतन्य की यात्रा कान्हा नाम का प्रसार करने में ही बीती। नित्यानंद, सनातन, रूप, स्वरूप दामोदर, अद्वैताचार्य, श्रीबस, हरिदास, मुरारी, गदाधर सरीखे समर्थकों ने चैतन्य का समर्थन किया और उनके संग-संग देश भर में कान्हा नाम का प्रचार करते रहे।
चैतन्य ने जीवन के अंतिम 24 वर्ष उड़ीसा की पुरी में गुजारे। पुरी, जहां जगन्नाथ का मंदिर है, साधक चैतन्य के लिए इससे बेहतर आसरा और क्या होता? चैतन्य के आगे सबने सिर झुकाया। उन्होंने भी सबको सीने से लगाया। उड़ीसा नरेश प्रतापरुद्र भी चैतन्य की संकीर्तन टोली के संग झूमते। ये वे दिन थे, जब चैतन्य समाधि के विभिन्न रूपों में समा जाते। भक्ति की इससे उच्च स्थिति और कोई नहीं! संसार में रहकर भी संसार से दूरी।
वैसे, ऐसा नहीं कि चैतन्य का विरोध नहीं हुआ। उन्होंने पग-पग पर दुष्टाचरण का सामना किया, लेकिन हरदम उबरे-उभरे, क्योंकि उन्हें किसी से द्वेष न था और सहारा था प्रभु का। क्रूरता का जवाब वे प्रेम से देते और दुष्ट लज्जित होकर उनकी राह से हट जाते। गांव के धोबी समेत संपूर्ण ग्रामवासियों को हरिबोल की ताल पर नृत्य के लिए प्रेरित कर देना हो, छू लेने भर से कुष्ठ रोगी की पीड़ा दूर करना या फिर सिर के हल्के-से दबाव से जगन्नाथ रथ को गतिमान कर देना, चैतन्य का यह चमत्कार भक्ति की शक्ति से ही जन्मता है। वैसे, चैतन्य होना तभी संभव है, जब व्यक्ति समुद्र को भी प्रभु का के लिए स्वयं को डुबा देने को आतुर हो जाए। चैतन्य इसीलिए प्रभुरूप हुए। वे कहते हैं, प्रभुनाम सुमिरन से ही कलियुग में शांति और प्रेम का आगमन होगा। 14 जून, 1533 को चैतन्य ने देह भले छोड़ दी हो, लेकिन उनकी धुन पर भक्तों के मन हरदम झूमते और प्रभु से गुहार लगाते रहेंगे, नंद गोपाल हम तुम्हारे सेवक हैं। हम जन्म और मृत्यु के अंधसमुद्र में पड़ गए हैं। कृपया हमें उठाएं और अपने चरणकमलों में स्थान दें।

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