कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, May 30, 2010

फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब


बताना ही क्या
कि
पहली बारिश के बाद
किस तरह मन का पोर-पोर
सहलाती है
माटी से उठती महक.
कहना ही क्या
कि 
मधुयामिनी में
प्रिय प्रतीक्षा के अंतराल के बाद
प्रेमाष्पद से मिलने का हर्ष क्या होता है...
कुछ लोग पूछते हैं...
बारिश में भीगते हुए,
छुप-छुपकर सिर्फ देखना...
ये क्या है...
ये बेवकूफ़ी ही है...
समझदार ये सब नहीं किया करते...
पहली बार प्रिय की पाती पढ़कर
जिस तरह होता है रोम स्फुरण
भावोद्रेक करा देता है कंठावरोध
वैसे ही
साक्षी है क्रूर समय...
जिसका मारा मैं...
प्रतीक्षा की एक-एक सांस का बोझ गिना है...
कहता हूं गवाह बनाकर 
काल चक्र को...
जैसा अमावस के बाद
सुख मिलता है धरा को...
चंद्र दर्शन का,
वैसे ही--
बरखा में भीगे तुम
दिखते हो,
तब मन मयूर करने लगता है नर्तन...
क्यों बोलें ये लब...
जब हृदय की धड़कनें तक जुड़ी हैं..
प्रिय स्मरण के क्रम से...
तुम्हारा आगमन और बिछोह ही
बढ़ाता-घटाता है
मेरे संवेदी क्रम को...
और मन कनबतियां करता रहता है
आसपास की बयार से...
फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब

रात के 4.25 बजे, गोंडा, सितंबर 1997

Friday, May 28, 2010

एक कुटिल प्रेमी की आदर्श-व्याख्या


वो तुम्हारी निगाह से उतर गए...
माना कि कुछ तो कमज़ोर थे,
दृढ़ नहीं रह सके चरित्र पर
नहीं बनाए रख सके,
अपना वह सात्विक बोध
जो तुम्हारे मन में
उनके लिए रखता था स्थान सुरक्षित
वे तो निर्बल थे, निर्मम भी थे कुछ
पर...
उन्हें चरित्र च्युत कहकर क्यों छिपा रहे स्व-निर्बलता?
जिसे एक बार `माना' तुमने
उसके लिए मन में खिन्नता कैसी?
क्यों विचलन अपने कर्तव्य में
और अगर प्रिय बनकर भी
जो रह गए भ्रमर स्वभावी
तो उनकी ही गलती क्या...ये तो चलन ही बंधु
जांच-परख लेते, फिर बनाते नेह संबंध...
क्या कहा--ऐसा नहीं होता,
तो फिर अब जुड़ाव में वणिक-बुद्धि भी कैसे?
बिच्छू की प्रवृत्ति ही तो है डंक मारना,
साधु वही, जो तब भी फैलाए रहे हथेली...
विषधारी को भी भंवर से निकालने को रहे तत्पर...
अच्छा लगा...तुम्हारा स्मित हास्य देखकर
इस उपदेश का अंतर्वेद समझ गए ना तुम...
हां!
दूसरों की आड़ में
मैं बना रहा हूं...अपनी भूलों से बचने का चक्रव्यूह
जाने-अनजाने अगर,
तुम्हारे मन का अनछुआपन
मेरी कोई अनियंत्रित क़दमताल
तोड़ दे तुम्हारे चिंतन का एकांत
या मेरी आदर्शिता का भ्रम
तो कहीं मैं भी ना हो जाऊं बहिष्कृत
तुम्हारे अंतःस्थल की गहराई से...
इसीलिए तो...
गढ़ ली हैं बहानों की गाथाएं
कभी डगमग हों पग...तो
सपनों की रुनझुन में खोए तुम...
मतवाले हाथी का नर्तन देखकर ना हो व्यथित...
तब किसी भोले बच्चे की तरह
खिलखिलाकर मांग लूं माफ़ी
आश्वासन दो--तब भी रहूंगा तुम्हारे मन में स्थिर
मिलेगा अभयदान

Thursday, May 27, 2010

पनीली आंखों के आगे खुशबूदार शाम


तुमने कहा 
क्या फायदा हुआ-
इस साथ से?
हम नहीं रह पाए पास...
नहीं हो सकी
संवेदना के मुक्तप्रवाही निर्झर में-
भावनाओं की उछलकूद 
मानता हूं मित्र
हमने जाना अपने आपको एक अरसे में
पहचानने में तो और भी वक़्फा लग गया
कुछ उधेड़बुन अब भी हो रही है...
अहसास में.
लेकिन इतना पास होने पर...
भी क्यों हैं उखड़े-उखड़े से...
बिखरेपन को समेटते हुए...
आओ! जी लें...
जीवन के उतने लम्हों को
जो अपने हैं...
जितना जो कुछ नीरस है,
बना लें मधुरिम...
कभी भी...
हृदतंत्री पर बजती वीणा के सुरों को
नापकर नहीं बताया जाता
सुरदार या बेसुरा...
यानी कि 
नहीं आंका जाता, नापा जाता
अपनेपन में सार्थकता या निरर्थकता का बोध...
जितना मिला वक़्त
महसूसने का...
हमने जिया, एक-दूसरे को गर्मजोशी से...
अब दूर रहेगी तो देह...
क्या हुआ, जो माटी के बुत अलग रहे...
हम तो सदैव रहेंगे एक, इकट्ठे
महकते जज़्बात सदैव देते रहेंगे
दस्तक
मन के किवाड़ पर
आहट, ख्वाबों की-पदचापों की...
झिंझोड़ती रहेगी हमारी-तुम्हारी तंद्रा
गर्म सांसों की मलय...
अलकें उड़ाया करेगी तुम्हारी,
क्यों होते हो अधीर प्रिय...
हम हैं जन्मों के साथी..
नहीं होंगे विलग
आओ! बिखेर दो एक स्मित हास्य...
जिससे...
निराशा की दोपहरी में
एक खुशबूदार शाम हो जाए...
और तब तुम्हारी पनीली आंखों के आगे...
शायद उग सके...
हमारे सुखद भविष्य का इंद्रधनुष

रात के 2.54 बजे, गोंडा, सितंबर-1997

Tuesday, May 25, 2010

नहीं बनना महान


मुझे नहीं बनना आदर्श पुरुष,
या फिर देवता...
नहीं चाहिए लेबल
महान होने का
मैं बने रहना चाहता हूं...
सारी दुर्बलताओं से ग्रस्त
एक आम इंसान!
जो बिना झिझक के
आंख को जो अच्छा लगे,
मन को जो शीतल कर दे...
प्राणों को जो झंकृत कर दे...
उसको बिना हिचक-
अपना कह दे!
ऐसी दिव्यता क्या करूं,
कि प्रिय को दर्शनशास्त्र तो पढ़ा लूं,
लेकिन बरबस बन थोथा महान
बांच भी ना सकूं प्यार की इबारत...
क्या मिलेगा उस लेबल से-
इसलिए हे प्रिए!
मुझे बना रहने दो, एक दुर्बल मानव
जिससे मैं, अपनी हर अभिव्यक्ति से पहले...
सारी वर्जनाएं भूल-
हर आम इंसान की तरह गुनगुना सकूं-
मुस्करा सकूं-
और बिना डर तुम्हें निहार सकूं...

गोंडा,  4.40 बजे रात में, 06 सितंबर, 1997

Monday, May 24, 2010

क्रूर ये समय

प्रिय,
आज हूं मैं  हिंस्र
आक्रामक...उत्तेजित
किसी आदमखोर पशु सा उन्मत्त!
ढूंढ रहा हूं घड़ी के आविष्कारक को...
मिल जाए / तो / तोड़ दूं उसका सर...
जब तुम अपने हाथ पर बंधी कलाई घड़ी देखते हो
मन करता है
जला दूं संसार की सारी घड़ियों को
जिन्होंने बांध रखी है विवशता समय की,
काश!
जब तुम मिलो-
रुक जाए ये संसार
मैं पागल-सा
बस सुनूं
तो शांति का संगीत...
या तो तुम
अगली बार मिलना...
हरदोई में
जहां का घंटाघर बंद है,
एक दशक से...
कम से कम
वहां तो ये शत्रु समय पीछा नहीं करता....!

गोंडा, रात के 2.40 बजे, सितंबर, 1997

Sunday, May 23, 2010

दिल्‍ली हिन्‍दी ब्‍लॉगर ‍ मिलन



इंटरनेशनल दिल्‍ली हिन्‍दी ब्‍लॉगर ‍मिलन, रविवार २३ मई को सांय 3 बजे से 6 तक...इसे व्‍यक्तिगत बुलावे की मान्‍यता प्रदान करें।


यह सिर्फ सूचना है। जिसमें ब्‍लॉगर समुदाय के सभी सक्रिय, निष्क्रिय, टंकी धारक, बेटंकी ब्‍लॉगर सभी आमंत्रित हैं। पूर्ण विवरण के लिए नुक्‍कड़ की पोस्‍टें देखते रहिये। अपनी संभावना बतलाते रहिए। यह एक ऐतिहासिक अवसर होगा। इस आयोजन के संबंध में अभी निर्णय लिया गया है। जिसमें सर्वश्री/सुश्री संगीता पुरी, ललित शर्मा, खुशदीप सहगल, एम. वर्मा, मयंक सक्‍सेना, पवन चंदन, जयकुमार झा, उपदेश सक्‍सेना, लिमटी खरे, महफूज अली, प्रशांत, डॉ. टी. एस. दराल, कनिष्‍क कश्‍यप, राजीव तनेजा, संजू तनेजा, शशि सिंहल और ऐसे बहुत सारे ब्‍लॉगर शामिल हो रहे हैं जिनसे आप मिलने के इच्‍छुक हैं और वे आपसे। दोनों तरफ जो आग बराबर की लगी हुई है। उस आग को ब्‍लॉगर और ब्‍लॉगिंग हित में कैसे उपयोग में लाया जाए। इस पर सार्थक विचार विमर्श होगा। 

इस बैठक में आप पहली बार कुमार जलजला जी से रूबरू होंगे। एक भले दिल के, अच्‍छी सोच के मालिक हैं। अच्‍छाईयों के जल से सराबोर, बुराईयों को जलाते हैं इसलिए जलजला कहलाते हैं। महफूज भाई से मिलने के लिए सभी बेताब हैं और उतने ही बेताब महफूज भाई भी हैं। इस बार उनकी ट्रेन नहीं छूटने दी जाएगी। इस संबंध में रेलवे के उच्‍चाधिकारियों से संपर्क साधा जा रहा है। कुछ ब्‍लॉगर इस कार्य पर लगा दिए गए हैं। संभावित पधारने वालों में हरदिल अजीज श्री बी एस पाबला जी हैं। 

स्‍थान : जाट धर्मशाला

नांगलोई मेट्रो स्‍टेशन के पास, दिल्‍ली 

समय : सांय 3 बजे से 6 बजे तक

यह सिर्फ सूचना है। इस मिलन समारोह में जिन विषयों पर चर्चा की जाएगी और निर्णय के लिए प्रस्‍ताव पेश किए जाएंगे। उनका विवरण कल आप एक अलग पोस्‍ट में पायेंगे। तब तक आप भी टिप्‍पणी में अपनी राय दे सकते हैं। इस सूचना को दिल्‍लीवासी ब्‍लॉगर अवश्‍य ध्‍यान से पढ़ें और अपनी और मित्रों की उपस्थिति के लिए भरसक प्रयास करें। दोबारा जल्‍दी से ऐसा अवसर नहीं मिलेगा। और भी ऐसे विशेष आकर्षणों की सूचना आपको कल दी जाएगी और जो ब्‍लॉगर इस मिलन में शामिल होंगे। वे आपको बतलायेंगे। पर आप भी बतलाने वालों में शामिल हो सकते हैं। अभी बहुत घंटे बाकी हैं। आप इस कार्यक्रम में अवश्‍य भाग लेना चाहेंगे। आप सबका मन से स्‍वागत है। इस सूचना को सबसे साझा करें...


Thursday, May 20, 2010

आत्मज्ञान तक पहुंच / समझा हूं / कि हूं / कन्फ्यूज़्ड

पिछली पोस्ट में कुछ कविताएं आपके लिए हाज़िर की थीं...वही सिलसिला जारी है...


सुंदरता पर / निश्वास / छोड़ता हुआ भी / तन्मय कब तक रहता मैं?
आदमखोर चरित्र को दरकिनार कर / सत्यवसन रहता मैं...
नहीं झेल सकता मैं अब एक भी मुखौटे वाला चेहरा
उतार डाले सभी  आवरण
नग्न यथार्थ की धरा पर हूं खड़ा
हूं तुम्हारे सामने।
सच की सज़ा क्या मिलेगी?
आत्महत्या की तरह फांसी का फंदा /
या कि तुम दोगे अभयदान?
अच्छा होगा तुम फिर लटका दो सलीब पर...
कम से कम हो सकूंगा
ईसा और सुकरात की तरह
वे भी तो हो गए थे अमर...
नहीं जानता,
क्या साबित करना चाहता हूं?
सच बोलने की सज़ा पाना चाहता हूं...
या / कि / झूठ बोलने का लाइसेंस!
आत्मज्ञान जगाना है मुझे,
अपने / आप / अपने में / मुझको / मुझमें
या कि /
महान होने के मुखौटे पहन,
कुछ और विशिष्ट होने की होड़ में,
होना है शामिल
(2001, जालंधर)

बरसों पहले की कबिताई...



कई दिन हुए, चौराहा पर कविता जैसा कुछ नहीं लिखा...। आज कुछ पुराने काग़ज़ मिले...उनमें कबिताई जैसा कुछ दिखा...सोचा आपके लिए यहां उतार दूं...साल 1996-97 से लेकर 2000-01 के बीच  की ये कविताएं हैं संभवतः....लीजिए, एक के बाद एक...

होते हैं कुछ और मायने भी प्यार के

तुम्हारा संवरना और मचलकर मेरे कंधे पर हाथ रखना
किसी कवि के लिए श्रृंगार रस का अनुपम उदाहरण हो सकता है
या फिर / 
सस्ते कथानकों वाली चवन्नी छाप किताबों के थोक भाव राइटर को मिल सकता है,
इससे `आगे क्या होगा' सोचने का आधार?
लेकिन
निश्चिंत रहो तुम
मैं जानता हूं / तुम कुछ और होने से पहले / हो मेरे लिए एक अबोध शिशु सी
और मैं हूं तुम्हारे लिए
घर के सामने लगे
नीम के पेड़ सा...

आत्महंत्रणी प्यास

गधे की पीठ का मुकाबला करते कंधे
ढोते हैं अभी तक
उसी आदिम तृष्णा का भार
नुचे, घायल पांव
रुलते हैं बाधा दौड़ में
रुकते नहीं फिर भी लगातार झुकते घुटने


इसीलिए खुश हैं वो

जिन्हें तरसाती है, जिनको जुटती नहीं
चटनी-रोटी
मिल जाए उन हाथों को डबलरोटी
तो कितना उछाह होता है मन में
है ना मेरे मीत।
माना कि डबलरोटी
नहीं बन सकती विकल्प
रोटी का / पर / कभी-कभी / गलतफ़हमी में जीना भी
कोई ख़ास नुक्सानदेह तो नहीं?
अपनी कमाई से बंसरी खरीदने के बाद
वो भी बहुत खुश हैं / या कि लबादा ओढ़े हैं / खुशी का
लेकिन
हरदम ओंठ बिसूरे / पनियाई आंखें लिए
रमना भी तो नहीं भाता...

(साल 2000-2001)

Wednesday, May 12, 2010

बहुत याद आएंगे सरोद के उस्ताद

अली अकबर खान चाहते  थे—राजस्थानी संगीत को मिले ऊंचाई 




सरोद आज ख़ामोश है। मन के तार छेड़ने वाले इस साज़ से आवाज़ आए भी तो कैसे...इसके बादशाह उस्ताद अली अकबर खान मौसिक़ी का संसार और ये फ़ानी दुनिया छोड़कर फ़ना हो गए हैं। अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को शहर में बीते शुक्रवार, 19 जून को गुर्दे (किडनी) की बीमारी से चार महीने तक जूझने के बाद खान साहब ने 88 साल की उम्र में आखिरी सांस ली और सरगम के संसार में कभी न भरने वाला एक और शून्य पैदा हो गया।

सपनों से सजा  हिंदी सिनेमा हो या फिर विश्व संगीत जगत...हर जगह सरोद की धुनों से जीवन की उमंगें पैदा करने वाले उस्ताद को सिर्फ इसलिए नहीं याद किया जाएगा कि उन्होंने दुनिया भर में भारतीय सरगम की धाक जमाई। उस्ताद को संगीत के शौकीन इसलिए भी भुला नहीं सकते क्योंकि खान साहब ने अपनी रचनात्मकता, सूझबूझ, हिम्मत और मौलिक सोच से संगीत को नई उर्जा भी बख़्शी है।
हिंदी फ़िल्मों से लेकर विश्व पटल पर सरोद की धुन को महत्व दिलाने वाले उस्ताद अली अकबर खान का नाम नई पीढ़ी भले न जाने, लेकिन वो कितनी बड़ी हस्ती थे, इसका अंदाज़ा मशहूर वॉयलिनिस्ट येहूदी मेनूइन के इस विशेषण से लगाया जा सकता है—खान साहब दुनिया के सबसे बड़े संगीतकार हैं।

शास्त्रीय संगीत संसार में पितामह माने जाने वाले बाबा अलाउद्दीन खान साहब के पुत्र अली अकबर खान को देश से कहीं ज़्यादा विदेशों में शोहरत और सम्मान मिला। 1965 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित खान साहब 80 साल की उम्र में भी किस कदर जीवंत थे, इसका अंदाज़ा कोलकाता में आयोजित उनके संगीत कार्यक्रम के एक श्रोता की टिप्पणी से लगाया जा सकता है—अली अकबर साहब का सरोदवादन अभी कुछ वर्ष पहले कोलकाता में हुए एक शानदार कार्यक्रम में सुना था। उन्हें सहारा देकर लाया गया था पर एक बार जब उन्होंने सरोद छेड़ दिया तो उम्र का कोई प्रभाव नहीं वहां नहीं था और लोग घंटों मंत्रमुग्ध बैठे रहे। उन्होंने एक कम्पोज़ीशन बजाने के पहले कहा कि यह कम्पोजीशन बाबा को, पिता बाबा अलाउद्दीन खां को बहुत प्रिय थी।

एक ब्लॉग पर प्रकाशित इस टिप्पणी से साफतौर पर पता चलता है कि संगीत  को लेकर ऐसा ज़ुनून और ज़िद हो, तो उम्र भी हौसले के आगे  घुटने टेक देती है।

14 अप्रैल, 1922 को  कोमिला ज़िले (अब बांग्लादेश  में) के शिबपुर गांव  में बाबा अलाउद्दीन खान  और मदीना बेगम के घर  पैदा हुए अली अकबर खान  ने उस उम्र से संगीत  सीखना शुरू कर दिया  था, जब बच्चे ठीक से  बोल भी नहीं पाते...महज  दो साल के थे अली, जब  उन्होंने गायन-वादन की  तालीम अपने पिता से  ही लेनी शुरू कर दी।  13 साल के अली ने पहली  बार मंच पर संगीत कार्यक्रम  दिया और 22 वर्ष का होने  तक वो जोधपुर राज्य  के दरबारी संगीतकार बन  चुके थे।

भारतीय संगीत  को विश्व पटल पर स्थापित  करने के लिए उस्ताद ने दुनिया के अलग-अलग शहरों की यात्राएं कीं। सरोद की धुन उनके साथ-साथ बढ़ती रही और सबने माना—हिंदुस्तान की मौसिक़ी का कोई जवाब नहीं। 1955 में उन्होंने अमेरिका में टीवी कार्यक्रम पेश किया और ऐसा करने वाले पहले संगीतकार बने।

विदेशों में  लोक संगीत का झंडा फहराकर भारत लौटे खान साहब ने 1956 में  कोलकाता में अपने नाम  से संगीत महाविद्यालय की नींव रखी और दो साल बाद  ही बर्कले, कैलिफोर्निया, अमेरिका  में भी एक म्यूजिक स्कूल  शुरू कर दिया। 1968 में ये स्कूल  सान रफ़ेल, कैलिफ़ोर्निया  में स्थानांतरित हो गया  और इसी साल अली अकबर खान भी अमेरिका में ही बस गए।

परदेस में संगीत के दीवानों ने उन्हें भरपूर प्यार दिया। ईनामों की बौछार हरदम खान साहब के दामन में होती रही। स्विट्जरलैंड में स्कूल कायम करने के साथ खान साहब को 1997 में अमेरिका की मशहूर नेशनल हैरिटेज फ़ेलोशिप से नवाजा गया। इससे भी पहले 1991 में वो मैकआर्थर जीनियस ग्रांट से सम्मानित किए गए।

इस बीच खान साहब लगातार भारत आते रहे। उन्होंने अपने बहनोई और मशहूर सितार वादक रवि शंकर और वायलिन के अमर कलाकार एल सुब्रह्मण्यम भारती के साथ कई जुगलबंदियां भी दीं। संगीत की परंपरा को तकरीबन दो सौ म्यूजिक स्कूलों के ज़रिए जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश को जैसे उन्होंने अपने जीवन का अभियान ही बना लिया था।

तन भले ही सात समंदर पार था पर खान साहब का मन हरदम भारत में बसता था। राजस्थान और यहां के लोक संगीत से उन्हें बहुत प्यार था। कई बार चिंता से भरकर उन्होंने कहा—बंगाल में रवींद्र संगीत और कर्नाटक में कर्नाटक संगीत की तरह राजस्थान की संगीत परंपरा समृद्ध क्यों नहीं रह पा रही है। खान साहब चाहते थे कि प्रेम दीवानी मीरा के पदों को हर आम आदमी तक राजस्थानी संगीत में सजाकर पहुंचाया जाए। खान साहब आज नहीं हैं...उनका सरोद भी चुप हो चुका है पर उनकी आरज़ू अभी बाकी है—राजस्थानी संगीत जगत पर हावी उपेक्षा का रेगिस्तान कभी सरकारी सहायता के मानसून से सराबोर हो सकेगा?


(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख)

Saturday, May 8, 2010

14 हसीनाएं, एक दीवाना... घुटने टेक रहा टाइगर

* बीवी  ने उतार कर रख दी शादी की अंगूठी

* पति को जमकर पीटा, दांत तक तोड़ डाले

* कार दुर्घटना को दिया अंजाम, पहुंचे अस्पताल

* फिर सास को पड़ा दिल का दौरा...

नहीं...ये किसी मध्यवर्गीय भारतीय पुरुष की दुख भरी कहानी नहीं है...। फिर कौन है ये? जान लीजिएगा...पहले कुछ झलकियां और भी देख लीजिए...

* चौदह  महिलाओं से शारीरिक संबंध, अब हर तरफ धिक्कार

* प्रमुख  प्रायोजक कंपनी ने भी महत्व देना कम किया

* करोड़ों की कमाई पानी में  गई, कैरियर पर पड़ा असर

ऐसे-ऐसे क़माल  करने वाला आख़िरकार है कौन? सही पहचाना आपने...ये हैं टाइगर वुड्स...दुनिया के नंबर एक गोल्फर। एक अरब डॉलर के मालिक टाइगर वुड्स (पूरा नाम-Eldrick "Tiger" Woods) इन दिनों ख़बरों में छाए हुए हैं...लेकिन अपने खेल की वज़ह से नहीं...। वो तो `बदनाम हुए तो क्या...नाम तो होगा’ की तर्ज पर कुचर्चा हासिल कर रहे हैं।

चाहे वेबसाइट्स  हों, न्यूज़ चैनल हों, इंटरनेट का टीवी जगत हो या फिर अखबार और पत्रिकाएं....हर जगह टाइगर के नाम की धूम है...वज़ह है...गोल्फ किंग टाइगर वुड्स की दस से ज्यादा महिलाओं के साथ कन्फर्म्ड फिजिकल रिलेशनशिप! अब पत्नी चाहे भारतीय हो या फिर विदेशी...पति के ऐसे चक्कर तो उसे हज़म होने से रहे, सो टाइगर साहब की परेशानियां बढ़ चली हैं। स्वीडन की मॉडल एलिन नार्डेग्रेन ने पति टाइगर वुड्स से रिश्ता तोड़ने का फ़ैसला कर लिया है और अपने हाथ से शादी की अंगूठी उतार दी है। हालांकि कुछ लोगों का कहना ये भी है कि एलिन शादीशुदा ज़िंदगी में बनी रहेंगी, क्योंकि उनके बच्चे—सैम और चार्ली अभी दो साल से भी कम उम्र के हैं और एलिन खुद भी बचपन में माता-पिता का अलगाव देख चुकी हैं।

टाइगर इन दिनों  अपनी शादी बचाने के लिए  खेल से अनिश्चितकालीन संन्यास लेकर घर भी बैठे हुए हैं, लेकिन परिवार-वार खत्म होती नहीं दिख रही। उनकी मुश्किलें सिर्फ घर तक नहीं सिमटतीं...। विवाहेत्तर संबंधों को लेकर जो तूफान मचा है, उसका उनकी कमाई पर भी खूब असर पड़ रहा है। वुड्स की प्रमुख प्रायोजक कंपनी प्रॉक्टर एंड गैंबल ने भी एनाउंस कर दिया है कि वो अपने प्रोडक्ट जिलेट के प्रचार कार्यक्रमों में टाइगर की भूमिका सीमित करेगी। अब तक 14 विश्व चैंपियनशिप अपने नाम करने वाले टाइगर ने पहली बार 1997 में पहला ख़िताब जीता था, तब उनकी उम्र महज 21 साल थी।

33 साल के हो चुके टाइगर घुटनों का ऑपरेशन करवाने के बाद तकरीबन एक साल गोल्फ के मैदान से बाहर रहे और जब लौटे, तो उन्हें विवादों ने घेर लिया। 13 साल के खेल कैरियर के दौरान 14 शीर्ष खिताब और 71 पीजीए टूर जीतने वाले टाइगर वुड्स ने शायद ही कभी सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब उन्हें ज्यादा गोलियां खा लेने की वज़ह से अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा। कहते हैं, ऐसा तब हुआ, जब एक कार दुर्घटना के बाद पत्नी ने उन्हें दवा का ओवर डोज़ दे दिया। ख़ैर, जितना बड़ा टाइगर का नाम था, उतने ही वो बदनाम भी हो रहे हैं। अमेरिका की नामी सेलिब्रिटी गॉसिप साइट टीएमजेड.कॉम के मुताबिक तो वुड्स को उनकी पत्नी ने पहले खूब पीटा और फिर कार के शीशे तोड़ दिए। इसके बाद वुड्स इतने घबरा गए कि कार दुर्घटना कर बैठे। उनके कारनामे सुनकर उनकी सास तथा स्वीडिश पॉलिटीशियन बारब्रो होमबर्ग बेहोश हो गईं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा।

विवाद तब शुरू हुआ था, जब एक अमेरिकी मैगज़ीन  ने वुड्स के एक बार गर्ल उशीटेल से अफेयर का खुलासा किया था। हालांकि दोनों ने ऐसे किसी भी रिश्ते से इनकार किया था। नवंबर में वुड्स कार दुर्घटना के शिकार हुए और उसके बाद तो गॉसिप्स की बाढ़ ही आ गई। एक के बाद एक कर 11 महिलाओं ने वुड्स से अपने फिज़िकल रिलेशंस होने कबूल किए। अलग-अलग स्रोतों में ये संख्या 13 तक बताई गई। सेलिब्रिटी गॉसिप वेबसाइट राडार ऑनलाइन.कॉम का दावा और आगे का है... वेलिंगटन निवासी थेरेसा रोजर्स वुड्स की चौदहवीं प्रेमिका हैं।

कुछ साल पहले तक वुड्स को लाखों नौजवानों का आदर्श माना जाता था।  विवादों में उलझने के बाद उन्हें इस बात का अहसास  भी हुआ...वुड्स ने अपनी गलती मानते हुए कहा, `मुझे अच्छी तरह पता है कि मेरी वजह से कई लोगों, खासकर एलिन नार्डेग्रेन, दोनों बच्चों और मेरी मां को काफी तकलीफ पहुंची है। मैं अपनी छवि में इस क्षति की भरपाई करने का प्रयास करुंगा।

वुड्स ही नहीं, उनकी प्रेमिकाएं भी इस विवाद की वज़ह से घबराई हुई हैं। कहते हैं,  कोई वकीलों की मदद ले रहा है, तो कोई अब अपनी `स्वीकारोक्ति’ को ग़लत बता रहा है। ऐसा करना उनके लिए ज़रूरी भी है, क्योंकि अब पता चल रहा है कि वुड्स अपनी दोस्तों के साथ सेक्सुअल रिलेशन बनाने के लिए घर से बाहर दूसरे शहरों में भी जाते थे...। यहां तक कि उन्होंने एक सेक्स वर्कर से भी रिलेशन बनाए।

नेम, फ़ेम, सेक्स  और मॉरलिटी के इस ड्रामे से टाइगर वुड्स को जो नुक्सान हुआ है, उसकी भरपाई वो कैसे करेंगे, ये वक्त ही बताएगा...लेकिन नेगेटिव ही सही, उन्हें पब्लिसिटी भी खूब मिली है। ऐसा ना हुआ होता, तो मशहूर ओपेरा विनफ्रे टीवी शो में उन्हें एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशंस के गुनाह कुबूल करने का न्योता ना दिया जाता। सुबह के ठीक  पांच बजे उठकर साढ़े छह बजे से वर्कआउट में जुट  जाने और शाम के सात बजे  तक बिस्तर पर नींद लेने पहुंच  जाने वाले, छह फुट, 1 इंच लंबे टाइगर वुड्स की ज़िंदगी के तमाम पन्ने अभी खुलने बाकी हैं...देखने वाली बात तो ये होगी कि ऐसे खुलासे गोल्फ के खेल से ज्यादा रोचक और रोमांचक साबित होते हैं या उनसे कम!      
(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख)

Tuesday, May 4, 2010

मजदूर और मजबूर....मीडिया





दोस्तों,

फोकस टेलिविजन में मेरे वरिष्ठ, हिंदी आउटपुट डेस्क के प्रमुख प्रमोद कुमार प्रवीण ने मज़दूर दिवस पर एक कविता लिखी। अभिव्यक्ति और प्रतीकों के लिहाज से अनूठी ये कविता इस मायने में भी उल्लेखनीय है कि मीडिया के मज़दूरों पर सधी हुई टिप्पणी भी यहां पढ़ने-समझने को मिलती है...







हम,
कितने बेचारे हैं ?
लाचार,
थके-हारे...
युद्ध में पराजित सा योद्धा ।
चले थे,
दुनिया को दीया दिखाने,
मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,
जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने
ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।
फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...
मगर,
निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।

एक मई, यानी मजदूर दिवस पर, मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द....

Monday, May 3, 2010

सुकून के सुर...येसुदास

हज़ारों मील लंबे रास्ते, गांव, गलियारे, नुक्कड़, चौराहे, अलग-अलग लहजा, तरह-तरह की ज़ुबान...यही तो है अपना हिंदुस्तान...विविधता से भरपूर देश, यहां के लोग अलग, उनके संस्कार अलहदा, लेकिन कहीं का भी, किसी इलाक़े का बाशिंदा क्यों ना हो...जब वो चैन चाहता है, उसका मन तड़पता है सुकून पाने के लिए, तो वो सुनना चाहता है...कोई गाता मैं सो जाता... जैसी धुन। ये कविता रची है हरिवंश राय बच्चन की, फ़िल्म है आलाप और आवाज़ है कट्टासेरी यूसुफ येसुदास की। 10 जनवरी, 1940 को कोच्चि में जन्मे डॉ. के.जे. येसुदास सरगम की ऐसी बारिश हैं, जिसकी बूंदें प्यासे मन को राग-रंग से सराबोर कर देती हैं। अफ़सोस की बात है, तो यही कि हिंदी फ़िल्म जगत ने ऐसे समृद्ध गायक को नहीं पहचाना। ख़ैर, उनका क्या गया, पर तमाम श्रोता महरूम रह गए एक ऐसी आवाज़ से, जिसे बड़े-बड़े फ़नकार कलाकारों का सरताज मानते हैं।

रहमान को ऑस्कर  मिला है...सारी दुनिया उनका लोहा मानती है और वो खुद येसुदास  के मुरीद हैं...मिठास भरी  आवाज़ में रहमान कहते हैं, ` वो मेरे पसंदीदा गायक और दुनिया में 'सबसे खूबसूरत आवाज़’ हैं।‘ संगीतकार रवींद्र जैन की ख़्वाहिश है—कभी मुझे आंखें मिलें, तो जो चेहरा मैं सबसे पहले देखना चाहूंगा, वो येसुदास का होगा। लता दीदी ने भी येसुदास की बात को हमेशा  सिर-माथे लिया। येसुदास ने एक बार कहा कि अब लताजी की आवाज में कंपन आ गया है, उन्हें गाना बंद कर देना चाहिए। तब अच्छा-खासा बवाल खड़ा हो गया था। लेकिन खुद लताजी ने कहा कि यसुदास सही कह रहे हैं।

येसुदास की आवाज़  में पवित्रता का खास अहसास  है...उन्हें सुनते हुए लगता है—कितनी थकान के बाद मखमली बिस्तर मिल गया है...महकती हुई बहार यकायक आ गई है...और चलो अब सो ही जाएं! `संस्रिति के विस्तृत सागर में, सपनों की नौका के अन्दर, दुख-सुख की लहरों में उठ गिर, बहता जाता, मैं सो जाता…कोई गाता मैं सो जाता’ की गुनगुनाहट जैसे मन के सारे पीर हर लेती है। येसुदास ने 40 हज़ार से ज्यादा गीत गाए।

ज़ुबानें भी अलग-अलग...कहना ना होगा, इन भाषाओं में गीत गाने के लिए तलफ्फुज  की मांग भी अलहदा थी और असर  में भी फ़र्क पैदा करना था, लेकिन क़माल है येसुदास, कहीं भी तो ना कांपी आपकी आवाज़...मलयालम, तमिल, हिंदी, कन्नड़, तेलुगु, बंगाली, गुजराती, उड़िया, मराठी, पंजाबी, संस्कृत, तुलु, मलय, रूसी, अरबी, लैटिन और अंग्रेजी...कोई भी भाषा हो-बोली हो, एक मिठास हर दिल पर तारी हुई...अपना रूहानी असर छोड़ गई।

ऐसे ही थोड़े  किसी को सात बार सर्वश्रेष्ठ  गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है! पद्मश्री (2002) और पद्मभूषण (1975) जैसे सम्मान बताते हैं—कितना बड़ा है येसुदास का कद। शास्त्रीय़ संगीत  में माहिर येसुदास का एक और गीत है—सदमा फ़िल्म का। गुलज़ार के बोल, इलैयाराजा की संगीत संरचना और येसुदास का वही जादू फिर से...सुरमई अंखियों में नन्हा-मुन्ना एक सपना दे जा रे, रारी रारी ओ रारी रुम, रारी रारी ओ रारी रुम....। ग़ज़ब का जादू रचते हैं येसुदास...फिर आती है तनहाई में तड़पते मन को छांव देने के लिए जैसे एक गोद। माथा सहलाने को कोमल सुरों की नाज़ुक उंगलियां।

येसुदास ने हर मौक़े के मुताबिक गीत  गाए। उन्होंने `कभी मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है, जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है...’ के बोल अमर कर दिए, जिनसे जीने की राह मिले, तो `जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी चोरी लेके गए देखो मेरा मन’ जैसा गुनगुनाने वाला नग्मा भी सुनाया।

एक लैटिन कैथोलिक  परिवार में जन्मे येसुदास ने संगीत का विधिवत प्रशिक्षण हासिल किया। बेहतरीन रंगमंच कलाकार औगेस्टीन जोसफ अपने बेटे येसुदास को बेहतर गायक बनाना चाहते थे। येसुदास ने गरीबी से संघर्ष करते हुए भी अपने पिता का सपना पूरा किया, उन्होंने ताने सुने, आल इंडिया रेडियो, त्रिवेन्द्रम के अफ़सरों से ये भी सुना—तुम्हारी आवाज़ प्रसारण के लिए उपयुक्त नहीं है...लेकिन हिम्मत नहीं हारी।

अफ़सोस ये है कि 2007 में येसुदास को उपेक्षा  झेलनी पड़ी। "दासेएटन" नाम से मशहूर येसुदा चाहते थे कि गुरुवायुर मन्दिर में बैठकर कृष्ण स्तुति करें, लेकिन उन्हें मन्दिर में प्रवेश नहीं दिया गया। अपने मलयालम गीत "गुरुवायुर अम्बला नादयिल.." के ज़रिए येसुदा ने अपनी ये पीड़ा जाहिर की थी।

मलयालम फ़िल्म कालापदुकल से येसुदास ने बतौर गायक अपना कैरियर शुरू किया। 1955 से सुरों की दुनिया को अमीर बना रहे येसुदास की आवाज़ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में सन पचहत्तर में गूंजी। हिंदी फ़िल्म संगीत के दर्शकों का शुक्रिया अदा करना चाहिए संगीतकार सलिल चौधरी का, जिन्होंने येसुदास से 1975 में फिल्म 'छोटी सी बात' का एक गीत गवाया—'जानेमन जानेमन' । इसमें आशा भोसले उनके साथ थीं । 1977 में इनकी आवाज़ फिर सुनाई दी 'आनंद महल' के गीत 'नी सा गा मा पा' में। रवीन्द्र जैन ने 1976 में इनसे 'चितचोर' में गवाया। 1979 में राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्म 'सावन को आने दो' के दो गीत भी मन को लुभाने में सफल रहे। एक—चांद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा...और तुझे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो...।

इससे कुछ साल पहले रूसी भी इस सुरीली गुनगुनाहट के तब दीवाने हुए, जब उन्होंने सोवियत संघ के तमाम शहरों में संगीत समारोहों में गीत सुनाए और रेडियो कजाकिस्तान पर भी पेशकश की। येसुदास ने 1980 में त्रिवेन्द्रम में थारंगी स्टूडियो की स्थापना भी की. 1992 में इसका कार्यालय और स्टूडियो चेन्नई में स्थानांतरित किया गया और फिर 1998 में अमेरिका में भी इसकी शाखा शुरू हुई। भारतीय संगीत को ग्लोबल पहचान दिलाने की एक मज़बूत कोशिश ये भी थी। सात समंदर पार तक भारतीय संगीत की तान पहुंचाने वाले येसुदास ने ज़ख्मी दिलों पर मरहम तो लगाए ही, 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच छिड़ी जंग के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए धन भी जुटाया। वतन की हिफाज़त की ख़ातिर अपना चैन भुलाकर जो राहों पर निकल पड़े, वही तो असल फ़नकार है।

हालांकि येसुदास  जंग के हरदम ख़िलाफ़ रहे, यही वजह है कि उन्हें यूनेस्को की तरफ से भी सम्मानित किया गया। वो ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने संगीत को शांति लाने के लिए साधन बनाया और इसमें कामयाब भी रहे। येसुदास की पत्नी हैं प्रभा और तीन बेटे हैं-विनोद, विजय और विशाल। इनमें से विजय येसुदास की परंपरा को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए 2007 में केरल राज्य फ़िल्म पुरस्कार दिया गया।

क्या आम और क्या ख़ास, येसुदास के मुरीद  हज़ारों लोग हैं। मशहूर  गायिका पी. सुशीला कहती हैं, येसुदास संगीत का सागर हैं। वो अपने व्यवहार से संत  की तरह लगते हैं। ऐसा ही मानते हैं अभिनेता मम्मूटी। वो तो कहते हैं—मैं उनका भक्त हूं। वो जीवित हैं, तो संगीत सांस लेता है। संगीतकार रवींद्रन की राय भी ज़ुदा नहीं है, 'येसुदास परमेश्वर की आवाज हैं।‘

लोगों का इतना प्यार यूं ही नहीं मिलता...हरिहरन जैसे गायकों की मानें, तो येसुदास केरल में लोगों के जीवन का एक हिस्सा हैं। सुबह से देर रात तक चाहे लोरी सुनने के लिए, बसों में चलते हुए, गलियों में-घरों में, होटल-रेस्टोरेंट्स में सुनाई देती है, तो सिर्फ येसुदास की आवाज़।

अन्ना मलाई विश्वविद्यालय से 1989 में डॉक्टरेट, 1992 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1994 में राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय संसद में सदस्यता, दसियों बार राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक के ख़िताब...येसुदास को इतने ईनाम-इकराम मिले हैं कि सबका उल्लेख किया जाए, तो दो-चार पन्ने भर जाएं...पर अफ़सोस...इतने गुणी व्यक्ति को बॉलीवुड ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। आखिर क्यों? पता नहीं, इस सवाल का जवाब क्या है?

जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख

Saturday, May 1, 2010

फिर छिड़े बात किताबों की



(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख...चौराहा के पाठकों के लिए)




प्रकाशकों और लेखकों के नज़रिए से मुद्रित किताबों का महत्व और डिजिटल पुस्तकों की चुनौती

पिछली सर्दियों की भोर याद आती है...एक सुबह, यही कोई साढ़े सात भर बजे होंगे. दिल्ली सेंट्रल सेक्रेटेरिएट के पास से गुज़रते हुए लॉन की तरफ नज़र उठी और यकायक खयाल आया—यहीं तो बैठे, सिमटे रहते हैं प्यार करने वाले, तभी फिर सोचा—उफ! मैं भी पागल हूं...कहां, इस वक्त कोई आएगा...धूप जब गुनगुनी होगी, तब कहीं निकलेंगे `कपल्स’...। अभी तो रजाई में मुंह ढांपे, अपने-अपने घरों में नींद ले रहे होंगे. लेकिन ये क्या...सच में दिल तो बच्चा है जी, देखा, एक दरख्त के पास, पत्थर की बेंच पर एक जोड़ा मौजूद था...। उनके क़दमों के पास कुछ गिलहरियां थीं, थोड़ी-सी मूंगफलियां थीं और दोनों कहीं खोए हुए थे। लड़के के हाथ में थमी थी एक क़िताब। वो पन्ने-दर-पन्ने पलटता हुआ कुछ सुनाता जा रहा था और लड़की उसके कांधे से सिर सटाए चुपचाप बैठी थी, आंखें मूंदे हुए, कभी-कभार पलकें उठाती, साथी को एक नज़र देख लेती, फिर बोल पड़ती...`हूं’। ये दोनों वैसे ही थे, जैसे हर प्यार करने वाला जोड़ा होता है...दुनिया से बेख़बर, लेकिन उनके पास एक अनूठी चीज भी थी...एक किताब।
दोनों के दिल जुड़े थे...और ये जोड़ और मज़बूत बना रही थी—पुरानी किताब! फिर कभी वो या वैसा जोड़ा नहीं दिखा...पता नहीं, अगली पीढ़ी में ऐसे प्रेमी होंगे भी या नहीं, जो किताबें पढ़ते हुए अपने प्यार को परवान चढ़ाने की कोशिशें करेंगे!
बात, महज प्रेमियों की नहीं...हर आम-ओ-खास की है...क्या अब भी लोगों को किताबों से मोहब्बत है...क्या हम पुस्तकें खरीदने में, फिर पढ़ने में और उन्हें अगली, और अगली पीढ़ी तक संजोने की कोशिशें करते हैं? आज, जब दिल्ली में लगने वाला विश्व पुस्तक मेला महज एक दिन पहले संपन्न हो गया है, जेहन में तमाम सवाल उभर रहे हैं..., पर सबसे मौजूं बात ये है—क्या किताबों के लगातार डिजिटल होते जाने के दौर में पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण बचा हुआ है? क्या पाठक कम नहीं हो रहे हैं? पुस्तक मेलों का आयोजन आखिरकार, किस क़दर सफल साबित हो रहा है?
कीमतों का रोना हिंदी के पाठक हमेशा रोते रहे हैं! किताबें चाहिए भी और वो सस्ती भी हों, भला क्यों भाई! घी की कीमत कम कैसे हो? और क्यों हो? ख़ैर, इसका हल एक ज़माने में हिंद वालों ने निकाला। वो पॉकेट बुक्स छापने लगे थे, बाद में राजकमल, वाणी और पता नहीं कितने-कितने पब्लिशर पॉकेट बुक लाए। हाल-फ़िलहाल गौरीनाथ का अंतिका प्रकाशन भी इस मामले में आगे आया है, लेकिन पाठकों की शिकायत है कि महंगी वाली किताबें तो पेपरबैक में छापी ही नहीं जातीं।
बात पेपरबैक वाली किताबों की हो, तो एक और बात याद आती है—पहले पढ़ने का शौक खूब हुआ करता था। पल्प लिट्रेचर ने तो कमाल ही किया, लाइब्रेरीज़ गली-गली में खुली थीं, एक-दो रुपये में चौबीस घंटे का मज़ा। मोहल्लों में रीडर्स क्लब भी बने. वैसे—वहां मैगज़ींस की धूम ज्यादा रहती थी।
अच्छी किताबों की चाहत और पहुंच कम नहीं रही। देवकीनंदन खत्री की ऐयारी वाली कहानियों का मज़ा लेने, चंद्रकांता और भूतनाथ पढ़ने के लिए बहुतों ने हिंदी तक सीखी। पेपर बैक में बड़े साहित्यकार भी आए। चाहे मंटो हों या प्रेमचंद...लेकिन ऐसे पेपरबैक ज्यादा चले नहीं....कुछ तो उनकी घटिया प्रिंटिंग क्वालिटी और दूसरे...प्रकाशकों को बस लिट्रेचर पर अहसान करना था, इसलिए छाप दिया, सो कोई प्रमोशन नहीं।
ताज़ा दौर में पुस्तकों की दुनिया पर तमाम तरह के दबाव हैं। लेखकों की सदैव-स्थिर शिकायत है, प्रकाशकों द्वारा शोषण करने की और पब्लिशर्स का शिकवा है—सरकार बढ़ावा नहीं देती। इस बीच पाठकों की संख्या कम होने और पुस्तकों के डिजिटाइजेशन के साथ मुद्रित साहित्य के लिए आकर्षण कम होने जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। बेशक—इसी रफ्तार में हिंदी के लेखक दरिद्रतम और अंग्रेजी राइटर सेलिब्रिटी बनते जा रहे हैं। खैर, रोना क्या रोएं और क्यों रोएं! मामला मार्केटिंग का भी है और खुद की अहमियत समझने का। फ़िलहाल, बात दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले की ही!
प्रकाशन, पाठक संख्या वगैरह को लेकर उपजी तमाम आशंकाओं को प्रभात प्रकाशन के संचालक डॉ. पीयूष हंसी में उड़ा देते हैं। वो पलटकर एक सवाल खुद ही कर लेते हैं, ` ज़नाब! आपने पुस्तक मेले की भीड़ नहीं देखी क्या? क्या आपको लाइन में लगकर अंदर नहीं आना पड़ा? आपने खुद ही महसूस किया होगा कि कैश काउंटर्स पर कामकाज देख रहे लोग लंच करने के लिए भी नहीं निकल पाते! पांच साल पहले तक ऐसी भीड़ की कल्पना करना भी दिवास्वप्न था, लेकिन अब तो हालात बदल रहे हैं बंधु! लोगों का किताबों पर यकीन और ज्यादा मज़बूत हुआ है।‘
पीयूष ये भी कहते हैं, पुस्तक मेले में 20 रुपये प्रवेश शुल्क लगाया गया। तमाम तकनीकी दिक्कतें और भी थीं, लेकिन भीड़ है कि थमने का नाम नहीं ले रही, तो आप लोगों के उत्साह का अंदाज़ा लगा सकते हैं। वो तर्क देते हैं, आजकल लोगों को मनोरंजन की हर चीज आसानी से मिल जाती है।
इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री खूब विकास कर रही है...यहां तक कि पिछले दिनों थ्री इडिएट्स ने 400 करोड़ का बिज़नेस किया है, लेकिन पुस्तकों का विकल्प कुछ भी नहीं हो सकता। पीयूष के चेहरे की खुशी उन सबको खुश होने की वज़ह दे सकती है, जो किताबों के भविष्य को लेकर ज़रा-सा भी आशंकित हैं।
पेंग्विन बुक्स इंडिया में सीनियर कमिशनिंग एडिटर वैशाली माथुर भी इस आशंका को सिरे से खारिज़ कर देती हैं कि हिंदी के पाठक कम हो रहे हैं। वो कहती हैं, `किताबों के कवर देखकर उनकी तरफ खिंचे चले आते लोगों से पूछिए—पन्ने पलटते हुए उनसे आने वाली सोंधी खुशबू का अहसास, स्याही से उभरे शब्द और हाथ में एक पुस्तक होने की खुशी को किसी तकनीक से तौला नहीं जा सकता।‘
वैशाली ये भी बताती हैं कि पेंग्विन ने पिछले दिनों हिंदी में कई किताबें प्रकाशित कीं, उन सबकी पुस्तक मेले में बेहतरीन बिक्री हुई है। हालत तो ये है कि मांग ज्यादा है और किताबें कम! वो कहती हैं, किताबों के डिजिटल रूप से अभी डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। तकनीकी विकास और ज्यादा हो जाने के बाद ज़रूर प्रकाशन उद्योग को गंभीरता के साथ काम करना पड़ेगा।
सामयिक प्रकाशन के संचालक महेश भारद्वाज कहते हैं—जब तक इंटरनेट घर-घर नहीं पहुंच जाता, मुद्रित किताबों के बाज़ार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। पीसी पर निगाह टिकाए रखकर आप देर तक नहीं पढ़ सकते। वो बताते हैं—साहित्य के पाठकों में कोई कमी नहीं आई है।
हां, कविता को पीछे छोड़कर उपन्यास ज़रूर आगे निकल गया है। महेश मानते हैं कि पुस्तक मेलों का आयोजन दिलचस्पी बनाने और बढ़ाने के लिए बहुत ज़रूरी है। जैसे होली-दीवाली और ईद मनाए जाते हैं, वैसे ही पठन-पाठन संस्कृति का विकास करने के लिए पुस्तक मेले भी होने चाहिए।
युवा लेखक और ब्लॉगर अविनाश वाचस्पति के मुताबिक, डिजिटाइजेशन कितना ही क्यों ना हो जाए, पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण बचा ही रहेगा। किताब तो वो चीज है, जहां चाहो पढ़ो, पढ़ते-पढ़ते थक जाओ, तो सीने पर रखकर सो जाओ। वो दोस्त की तरह हैं...ना किसी डाउनलोड का झंझट है, ना ही अपलोड का। बस खोली और पढ़ ली। अविनाश ये भी बताते हैं कि ब्लॉग्स पर बहुत सारा लेखन हो रहा है, लेकिन शायद ही कोई ब्लॉगर ऐसा हो, जिसके मन में पुस्तक छपवाने की इच्छा ना हो...इससे साफ पता चलता है कि तकनीक की बढ़त के बावज़ूद मुद्रित रूप का जादू सबसे आगे है। वो कहते हैं, पाठक कम नहीं हो रहे हैं, हां—आबादी ज़रूर बढ़ रही है। आप औसत देखिए तो पढ़ने वालों का सदा अधिक ही मिलेगा। पुस्तक मेलों की भीड़ इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण है। वो ये भी सुझाते हैं कि कपड़ों की सेल की तरह पुस्तकों की सेल भी लगाई जाए।
ब्रिटेन के बाथ शहर में बसे भारतीय मूल के हिंदी कवि मोहन राणा तो एक कदम आगे की बात कहते हैं, `डिजिटल होते जाने के दौर में पुस्तकों के मुद्रित स्वरूप के लिए आकर्षण में निखार और प्रसार हुआ है।‘ वो उदाहरण भी देते हैं—हाल में ही मुझे अपने प्रकाशक से ईमेल मिला। मेरी पिछली पुस्तक  "धूप के अँधेरे  में"  की कई प्रतियां पाठकों ने विश्व पुस्तक मेले में खरीदीं. उन्हें मेरी रचना की और मुझे बिक्री की सूचना ऑनलाइन ही तो मिली!  मोहन मानते हैं कि समाज में पुस्तक की मौजूदगी रेखांकित करने के लिए ऐसे आयोजन ज़रूरी हैं। हालांकि उन्हें किताबों की दुकान का पूरक नहीं माना जा सकता।
हिंदी में पाठकों के कम होने की आशंका को वो चिरकालीन बताते हैं—`बरसों से इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। ये सच है कि व्यक्तिगत रूप से पुस्तकों को खरीदने और पढ़ने की संस्कृति और व्यवहार हिंगी समाज में अभी तक विकसित नहीं हो पाया है, लेकिन जो पाठक थे, वो बरकरार हैं।‘
निजामाबाद, आंध्रप्रदेश के वरिष्ठ हिंदी पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव मुद्रित किताबों के लिए आकर्षण बचे रहने के प्रश्न को ज्यादा महत्व नहीं देते। वो पूछते हैं, पहले भी तो न्यूज़ चैनल्स की शुरुआत के समय कहा गया था कि प्रिंट मीडिया पर बहुत असर पड़ेगा...क्या ऐसा हुआ? यही बात, इंटरनेट पर किताबों की उपलब्धता और मुद्रित पुस्तकों के बीच आकर्षण की कमी को लेकर भी लागू होती है। श्रीवास्तव ये ज़रूर मानते हैं कि लोगों में पुस्तकें पढ़ने की ललक कम हुई है, लेकिन वो जोड़ना नहीं भूलते—ऐसा दौर अक्सर आता रहता है और इससे परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है।
चर्चित प्रकाशन किताबघर के संचालक मनोज शर्मा से जब हमने किताबों के मेले और डिजिटाइजेशन को लेकर सवाल किए, तो उन्होंने मुस्कान बिखेरी और कहना शुरू किया...` मेरे पास इस वक्त जो सज्जन बैठे हैं, वो एक बड़े सर्च इंजन के भारतीय पदाधिकारी हैं...वो चाहते हैं कि मैं अपनी किताबों की सामग्री इन्हें मुहैया कराऊं, ताकि इनका डिजिटाइजेशन हो सके। मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई दिक्कत है। ऐसा प्रयोग तो किताबों के प्रति और ज्यादा मोह बढ़ाएगा। खासकर उन देशों में, जहां हिंदी की पुस्तकें नहीं मिल रही हैं, वहां इंटरनेट की मदद से किताबें पहुंच रही हैं, तो ये अच्छा है।‘ बाकी प्रकाशकों और लेखकों की तरह मनोज शर्मा भी पुस्तक मेलों के आयोजन को दीवाली के त्योहार की संज्ञा देते हैं, और एक और नाम भी दे देते हैं—पठन-पाठन का महाकुंभ!
दिल्ली में इस साल लगे किताबों के मेले में सिर्फ पुस्तकें ही नहीं बिकीं, पढ़ने वाली क़लम जैसी तकनीक और ऑडियो-वीडियो सीडी का बाज़ार भी गर्माया रहा। लोग चाहे पिकनिक मनाने आएं हों या सचमुच किताबें खरीदने...वज़ह चाहे जो भी हो, भीड़ बेशुमार रही।
लोगों का रेला और पुस्तकों का मेला...उम्मीदें लेकर आया... तकनीक कितनी ही आगे क्यों ना बढ़ जाए...किताब खोलते ही नाक के ज़रिए दिमाग तक पहुंच जाने वाली सोंधी महक हरदम अपनी ओर खींचती रहेगी और लोग गुनगुनाते रहेंगे...भेजा है इक गुलाब किसी ने किताब में / जी चाहता है भेज दूं मैं दिल जवाब में।