कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, October 19, 2010

ज़िद से जीत तक

भव्यता और प्रभाव, प्रदर्शन और उपलब्धि, पसीना और सोना...यही सब हैं राष्ट्रमंडल खेलों के मुख्य तत्व...आइए, हम आपको मिलवाते हैं इन खेलों में भारत का नाम रोशन करने वाले कुछ ऐसे जांबाज खिलाड़ियों से, जिन्होंने गुरबत को ही ताकत बना लिया, जो मेहनत के दम पर हर सुविधा से आगे निकल आए, जिन्होंने मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुजारते हुए भी सोने-चांदी-कांसे के पदकों से देश की तिज़ोरी भर दी।

कुछ लोग रोते-बिसूरते रहते हैं कि हमारे पास ये सुविधा नहीं, वो खुशी नहीं, इतना पैसा नहीं, उतना आराम नहीं—नहीं तो हम आकाश की छाती में सुराख कर देते...काश! वो गौर से देखते राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन...उनकी समझ में आ जाता कि धन और उन्नति का एकसाथ कोई संबंध नहीं होता।
इस बात को पुख्ता करता है हरप्रीत सिंह का प्रदर्शन। बचपन में गुब्बारों पर निशाना साधते थे, बड़े हुए तो सोने के लक्ष्य पर लगा दी आंख और ऐसी टिकाई कि देश की तिज़ोरी स्वर्णिम आभा से चमका दी। राष्ट्रमंडल खेलों की 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल सिंगल्स और 25 मीटर सेंटरफायर पिस्टल पेयर्स प्रतियोगिता में स्वर्ण और वो भी दो दिन तक लगातार सोना जीतने वाले हरप्रीत के बारे में और कुछ जानना चाहेंगे आप?
हरियाणा के करनाल ज़िले का रहने वाला हरप्रीत किसी अमीर खानदान का लाडला नहीं है। उसने एक फैक्टरी में लोडर का काम किया, ताकि घर में दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो सके।
ये देश एकलव्य का देश है, जिसने बिना गुरु के सान्निध्य के सारे जग को वाण-वर्षा के आगे झुका दिया...कुछ ऐसी ही हैं तीरंदाजी में माहिर दीपिका कुमारी। दोहरा स्वर्ण हासिल करने वाली दीपिका के पिता ऑटो रिक्शा चालक हैं, मां नर्स हैं, पूरा परिवार झोपड़ी में रहता है, लेकिन हौसले आसमान को छूते हैं।
दीपिका ही क्यों, भारोत्तोलन की दुनिया में देश का नाम रोशन करने और 69 किलोग्राम भार वर्ग में स्वर्ण पदक हासिल कर नया खेल रिकॉर्ड बनाने वाले के. रवि कुमार भी ऐसा ही नायाब नगीना हैं। उड़ीसा निवासी रवि वो दिन कभी नहीं भुला पाते, जब घर का खर्च चलाने वाले टैक्सी ड्राइवर पिता की असमय मृत्यु हो गई थी। मां के नाजुक कंधों पर पूरे परिवार का पेट पालने की ज़िम्मेदारी थी और रवि की आंखों में पल रहे थे बेशुमार सपने। मां आंगनबाड़ी जातीं, जमकर मेहनत करतीं, ताकि बच्चों को रोटी मिल पाए और रवि दिन-रात पसीना बहाते, ताकि कुछ कर गुजरने के सपने मंज़िल तक पहुंच जाएं। आज दोनों के दिल खुशी से लबालब हैं—मां को नाज़ है कि बेटे ने उनका और देश का नाम रोशन किया, तो बेटे को फ़ख्र है राष्ट्र की मिट्टी पर, जिसने उनके पसीने से सिंचकर सोना उगा दिया।
जज़्बा, जुनून और ज़िद हो, तो इंसान क्या नहीं कर सकता। इसी का प्रमाण हैं तैराकी की नायाब कला के बेमिसाल उदाहरण—प्रशांत कर्माकर। एक बार बस में सफ़र करते वक्त बगल से निकले ट्रक ने उनके एक हाथ की बलि ले ली पर हाथ नहीं तो क्या हुआ...कहते हैं—इंसान ज़िद कर ले, तो सारी दुनिया को झुका सकता है। प्रशांत ने भी कसम खाई कि हार नहीं मानेंगे। उन्हें सहानुभूति नहीं, सम्मान पाना था। लेकिन ज़िद भर होती, तो मंज़िल ना मिलती। उन्होंने जी-जान लगाकर मेहनत की और फिर शीर्ष पर स्थान बना लिया। प्रशांत ने 50 मीटर पैरास्पोर्ट्स फ्री-स्टाइल एस-9 पुरुष वर्ग में देश के लिए कांस्य पदक हासिल किया है।
प्रशांत के साथ जब हादसा हुआ था, तब वो दादी के साथ ही सफ़र कर रहे थे। अब भी दादी की आंखों में वो लम्हा ठहरा हुआ है, लेकिन पोते के कमाल और उपलब्धियों ने दिल के दर्द पर कुछ मरहम ज़रूर लगा दिया है।
आशीष कुमार ने जिम्नास्टिक आर्टिस्टिक वर्ग में वाल्ट स्पर्धा में रजत और फ्लोर एक्सरसाइज में ब्रोंज मेडल हासिल किए। उनकी ये उपलब्धि दुनिया के सामने हमारा सिर इसलिए भी ऊंचा करती है, क्योंकि खेलों के संसार में भारत ने अब तक एथलेटिक्स में कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया था।
इलाहाबादी छोरे आशीष की उम्र सुनेंगे तो चौंक जाएंगे। महज—19 साल। ऐसी उम्र में तो नौजवान लड़के-लड़कियां मोबाइल पर मैसेजिंग करने में ही मशगूल रहते हैं, लेकिन आशीष दिन-रात देखे बिना हर पल बस खेल के बारे में ही सोचते रहे, अभ्यास करते रहे। पिता चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। उनके घर में लोगों की आरजुएं उभरती भी नहीं, ज़ुबान तक आने से पहले ही थम जाती हैं। वज़ह यही—चादर छोटी है, पैर ज्यादा ना पसारो, लेकिन नन्ही-नन्ही आंखों में बड़े सपने देखने वाले आशीष ने क्लर्क की नौकरी करते हुए भी ख्वाबों को झुलसने नहीं दिया।
और अब बात एथलेटिक्स की सूरमा कृष्णा पूनिया की। उन्होंने देश को 52 साल बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स में सोना दिलाया है। आपको बता दें कि 1958 में कार्डिफ में हुई प्रतियोगिता में मिल्खा सिंह 400 मीटर दौड़ में पदक लाए थे। वही मिल्खा इस बार निराश और नाराज़ थे। उन्होंने कहा था—दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में भारत को सोना नहीं मिलेगा, लेकिन उन्हें तब सबसे ज्यादा खुशी हुई होगी, जब कृष्णा ने उनकी बात गलत साबित कर दी और सोने का पदक चूम लिया! 
28 साल की कृष्णा महीनों तक डेढ़ साल के बच्चे और पति व कोच वीरेंद्र से दूर रहीं। कैसे कटते होंगे दिन के 24 घंटे...हर वक्त अपनों से बिछड़कर रहना...पर देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा ही तो ऐसे खिलाड़ियों को महान और प्रणाम के काबिल बनाता है। भारत को ऊंचाई, खुशी और सोने-चांदी-कांसे के गौरव से मालामाल कर देने वाले इन खिलाड़ियों को दिल से सलाम। देश को मिले 101 पदकों का शगुन लाने वाले ये खिलाड़ी ही असल मायने में रोल मॉडल हैं, जो बताते हैं—मुफलिसी मज़बूत बना देती है। आपको आगे लाकर खड़ा करती है। अभाव पक्का करते हैं और जिगर में ज़िद पैदा करते हैं—हमें जीतना ही होगा...।

1 comment:

वीरेंद्र सिंह said...

आपने बिल्कुल सत्य लिखा है .....अगर दिल में लगन हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है .
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ. एक प्रेरणाप्रद और ऑंखें खोलने वाली पोस्ट के लिए आपको आभार .