कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, February 27, 2011

ट्विंकल है उदास...चले गए अंकल पै

स्मृति-शेष


किस्से-कहानियां सुनाने वाली दादी अब साथ नहीं रहती...घर छोटे हैं...बिल्डिंगें बड़ी हैं...दादी का जी शहर में नहीं लगता...वैसे भी, कार्टून और एनिमेशन का ज़माना है, वो भी डिज़्नी वाले कार्टून्स का। पिछले दिनों `माई फ्रेंड गणेशा’ और `हनुमान’ जैसे कैरेक्टर ज़रूर देखे थे, लेकिन ऐसा कम ही होता है। बहुतायत में तो अब भी अंगरेज़ हावी हैं, पैंट के ऊपर चड्ढी पहनने वाले हीरो! 
यह कोई आज की बात नहीं है। साठ-सत्तर साल पहले से अब तक, कभी बैटमैन, तो कभी स्पाइडरमैन, तो कहीं-कहीं फैंटम जलवा बिखेरते रहे हैं। प्राण के चाचा चौधरी और अंकल पै की ट्विंकल ने ज़रूर धक्का मारकर इनको कई बार भगाया है। बात यह नहीं कि कॉमिक्स के कैरेक्टर स्वदेशी हों। यह राष्ट्रवाद का मामला तो है नहीं, लेकिन इससे भी कौन इनकार करेगा कि अपने बगीचे में फला-पका आम कुछ ज्यादा ही जायका देता है...नहीं क्या? ऐसे ही, रियल इंडियन हीरोज़ के क्रिएटर थे अंकल पै, यानी अनंत पै।
याद आए? हां, अब उनकी याद ही बाकी है। बीते गुरुवार को अनंत पै का निधन हो गया है। उनके परिवार में पत्नी ललिता हैं और हम सबके जेहन में अंकल की यादें...ट्विंकल की बातें और अमर चित्रकथा की तस्वीरें।
बहुत-से साल गुज़र गए, वैसे ही बचपन बीत गया, लेकिन तब मोहल्ले के परचूनिए से ऑरेंज वाली टॉफियां खरीदने के लिए घर से अठन्नी मिलती थी। कई बार मिलती, तो कई दफा हम किसी ना किसी तरीके से झटक लेते। बहुत दफा टॉफी ना आती, उसकी जगह हम कॉमिक्स ले आते। तीन-चार चवन्नियां मिलाकर, या फिर पैसे कम पड़ते तो किराए पर ही सही। सबसे ज्यादा डिमांड इंद्रजाल कॉमिक्स की होती। बाद में यही मांग ट्विंकल और अमर चित्रकथा की हो गई थी। कॉमिक्स इधर हाथ में आई नहीं कि धमाचौकड़ी शुरू...भाई फील्डिंग-वील्डिंग तो सब ठीक है, लेकिन बैटिंग पहले हम ही करेंगे...की तर्ज वाली होड़—कॉमिक्स तो हमें ही पढ़नी है सबसे आगे होकर। 
बहुत बार पैसे ना होते, तो बिरजू चाचा की दुकान पर जाते। कॉमिक्स देखने का बहाना करते और सर्राटे के साथ एक-एक तस्वीर और शब्द ऐसे पी लेते, जैसे—ताज़ा नींबू का शरबत पिया हो। बाद में बिरजू चाचा भी चालाकी समझ गए थे पर वो किस्सा फिर कभी सही। बात अंकल पै की हो रही थी, उनके जादू की, कारनामे की।

दो साल के थे अनंत, जब माता-पिता नहीं रहे। बारह साल के थे, तब मुंबई आ गए। अपना बचपन मां-बाप के बिना गुज़ारा, लेकिन यह ठान ली—दुनिया भर के बच्चों के चेहरे मुस्कान के खजाने से भर देंगे।
रसायन विज्ञान में पढ़ाई करने के साथ-साथ अनंत समझ चुके थे कि बच्चों का दिल लुभाने, यानी उनके दिमाग में केमिकल लोचा करने के लिए क्या-क्या करना होगा? 1967 में उन्होंने अमर चित्रकथा छापनी शुरू की। यह वह दौर था, जब कॉमिक्स ज्यादातर अंगरेज़ी में मिलती। वह भी ऐसी, जिसके हीरो-हीरोइन हमारे कल्चर से एकदम अलग, यानी तकरीबन डरावने होते। हालांकि बच्चों की ऐसी कोई डिमांड नहीं थी कि हीरो हिंदुस्तानी चाहिए, और फिर रामायण-महाभारत की कहानियां तो सबको मुंहज़बानी याद थीं, ऐसे में उनमें कोई खास इंट्रेस्ट नहीं था...लेकिन कमाल थे अंकल पै।
उन्होंने वही पुरानी कहानियां सुनाईं...बस उन्हें पेश करने का अंदाज़ ऐसा था कि वो आदत बन गईं...नस में उतर गईं...। हिम्मतवाले भीम, हरदम सच बोलने वाले युधिष्ठिर, बंशी बजाते कान्हा, माखन चुराते गोपाल...पढ़कर लगता, जैसे हम किसी नए हीरो से मिल रहे हैं।
1929 में कर्नाटक के करकाला में पैदा हुए अंकल पई का 81 साल की उम्र में निधन हुआ है। इस दौरान उन्होंने भरपूर ज़िंदगी जी है। ठीक उसी जोश के साथ, जिस तरह उन्होंने टाइम्स ग्रुप की नौकरी छोड़कर अमर चित्रकथा का प्रकाशन शुरू किया था। क्या कोई सोच सकता है, पुरानी कहानियों की नई पेशकश का उनका अंदाज़ बेस्ट सेलर बन जाएगा। हां, यह रिकॉर्डेड फैक्ट है कि अमर चित्रकथा की कॉपीज़ दस करोड़ से ज्यादा बिक चुकी हैं।
अंकल पै इस मायने में खास हैं कि उन्होंने इतिहास को फिर से रचा (अमर चित्रकथा), फिर 1980 में हिंदी और अंगरेज़ी, दोनों ज़ुबानों में ट्विंकल प्रकाशित करनी शुरू की। कपीश और ट्विंकल जैसे किरदार अब तक घर के मेंबर्स की तरह लगते हैं—यह अंकल पै का ही तो कमाल है। आज तमाम अखबारों में दिखने वाली कॉमिक्स स्ट्रिप्स के पीछे अनंत पै का योगदान कौन भुला सकता है? 1969 में उन्होंने रेखा फीचर्स की शुरुआत की थी और जगह-जगह कार्टून और कॉमिक्स स्ट्रिप्स भेजने का सिलसिला भी।
पिछले दिनों ख़बर सुनी थी कि अमर चित्रकथा अब आईफोन, आईपॉड और सेलफोन पर उपलब्ध होगी। इसके बाद पता चला कि इस लोकप्रिय सीरीज़ पर टेलिविजन सीरियल भी बनने वाला है। यह सबकुछ होगा। बचपन फिर हंसेगा। अपने पुरखों के कारनामे हम याद करेंगे, सबकुछ होगा...बस अंकल पै ना होंगे।

Saturday, February 19, 2011

फिर सुनें स्त्री-मन और जीवन की कहानियां

चर्चा में किताब

कथा में नई दृष्टि और भाषा गढ़ती हैं रीता सिन्हा 


चूल्हे पर रखी पतीली में धीरे-धीरे गर्म होता और फिर उफनकर गिर जाता दूध देखा है कभी? ऐसा ही तो है स्त्री-मन। संवेदनाओं की गर्माहट कितनी देर में और किस कदर कटाक्ष-उपेक्षा की तपन-जलन में तब्दील हो जाएगी, पहले से इसका अंदाज़ा लगाना संभव होता, तो स्त्री-पुरुष संबंधों में आई तल्खी यूं, ऐसे ना होती, ना समाज का मौजूदा अविश्वसनीय रूप बन पाता। सच तो ये है कि स्त्री के चित्त-चाह-आह और नाराज़गी को शब्द कम ही मिले हैं। ज्यादातर समय अहसास या तो चूल्हे से उठते धुएं में गुम हो गए हैं या फिर दौड़ में शामिल होने के लिए लगाई जा रही चटख लिपिस्टिक के रंगों में लिपट बदरंग होते रहते हैं। समझदारी और समझ के बीच की तहें खोलने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जद्दोज़हद में स्त्री कभी भरती है, तो कई बार पूरी तरह खाली हो जाती है। किसी ने सच कहा है—कामयाबी के शीर्ष पर खड़ी स्त्रियां अकेली होती हैं, वहीं घर-परिवार के भरपूर जीवन में भी तो उन्हें तनहा ही होना होता है। वैसे, बात स्त्री के अपने अस्तित्व-जद्दोज़हद की ही नहीं, वह समाज का हिस्सा भी तो है, इसलिए चाहे-अनचाहे उसे वज़ूद के साथ मौजूदगी के ख़तरों-ज़िम्मेदारियों से अनिवार्य तौर पर रूबरू होना होता है। स्त्री की इसी सोच-संवेदना-संत्रास और स्वप्न यात्रा को शब्दों में पिरोने का खूबसूरत काम किया है रीता सिन्हा ने। सामयिक प्रकाशन से आया उनका नया कथा संग्रह—डेस्कटॉप इस काम को बखूबी अंजाम देता है।
बिहार की रीता सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर एवं इग्नू (दिल्ली) में एकेडेमिक काउंसलर हैं। हिंदी भाषा में एमए, पीएच-डी करने के अलावा, रीता आकाशवाणी से कहानियों और कविताओं तथा दूरदर्शन से कविताओं का पाठ कर चुकी हैं। बीस वर्षों से प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां, कविताएं, समीक्षाएं एवं लेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।
खासी पढ़ी-लिखी रीता के साथ सकारात्मक बात यह है कि वह संतुष्ट हो जाने की जगह सजग हैं। यही सजगता उनकी कहानियों में भी नज़र आती है।
रीता कहती हैं—जब विसंगतियों या विडंबनाओं के कारण भीतर प्रश्नाकुलता की बेचैनी होती है, तब मेरे मस्तिष्क में बिम्बों का सृजन होने लगता है। ये बिम्ब कभी शृंखलाबद्ध होते हैं और कभी टुकड़ों में बनने लगते हैं। इसी के साथ मेरे भीतर की रचनाशीलता भी प्रतिक्रयात्मक संवेगों के साथ सक्रिय होने लगती है। जबतक मैं इन्हें अभिव्यक्त नहीं कर लूँ, मेरे भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती। मैं मानती हूं कि लेखक का समाज के प्रति बहुत बड़ा दायित्व भी होता है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को आइने में अपने वास्तविक स्वरूप दिखाने का कार्य भी लेखक ही करता है। मैं अपने लेखन के द्वारा आसपास की उन विडंबनाओं को सामने लाना चाहती हूं, जिन्हें हम देखते तो हर समय हैं, पर उनपर सोचना नहीं चाहते।
तकरीबन पौने दो सौ पृष्ठों के कहानी संग्रह डेस्कटॉप की कीमत ढाई सौ रुपए है, जो कुछ ज्यादा लग सकती है, लेकिन नई सोच और भाषा की जादुई बुनावट के लिए इसे पढ़ा जा सकता है। नए प्रतीकों, मीडिया की अक्षमता-विवशता, मौद्रिक नीतियों के कु-फल, स्त्री की सनातन छटपटाहट और रिश्तों के खोखलेपन को रेखांकित करते इस कथा संग्रह का आमुख प्रख्यात कहानीकार चित्रा मुद्गल ने लिखा है और वह भी मानती हैं कि रीता सिन्हा का कथा-वितान सीमाओं की जकड़बंदी से मुक्त, विस्तृत, गहन और व्यापक है। ठीक ऐसी ही राय हिंदी आलोचना के प्रख्यात पुरुष नामवर सिंह की है, जो रीता की भाषा को आज के दौर के लिए ज़रूरी बताते हैं। तकरीबन चौदह कहानियों से सजे इस संग्रह की खासियत यह भी है कि यहां पुरुष घृणा का पात्र या असभ्य, असमान्य नहीं है (बहुधा स्त्री-विमर्श में रेखांकित किए जाने की तरह), बल्कि वह स्त्री का साथी है और अपनी संपूर्ण छुद्रताओं-स्वाभाविकता के साथ मौजूद है।



रीता सिन्हा से छह सवाल


- लेखन आपके लिए आश्वस्तिकारक है या फिर महज खुद को रिलीज़ करने का माध्यम?
0 लेखन मुझे आश्वस्ति प्रदान करता है। सिर्फ अपनी भावनाओं को बाहर फेंक देने का काम किसी ज़िम्मेदार लेखक का हो ही नहीं सकता, इसलिए मेरा भी नहीं है।
. एक लेखक के कितने आड़े आता है महानगरीय परिवेश?
0 महानगरीय परिवेश में लोगों की गिव एंड टेक की मानसिकता लेखन के आड़े तो आती है, लेकिन यदि लेखक में अनुभूति की ईमानदारी के लिए प्रतिबद्धता और लेखन के प्रति निष्ठा हो, तो यह मानसिकता या प्रवृत्ति अधिक कुप्रभावित नहीं कर सकती।
- स्त्री-विमर्श की आपकी अपनी परिभाषा क्या है?
0 स्त्री विमर्श दृष्टिकोण, विचार या चिन्तन का कोई एक आयाम नहीं है। यह सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-जीवन का ऐसा मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय और बौद्धिक विश्लेषण है, जिसमें किसी तरह का विशेषाग्रह, पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं हो सकता।

- भाषा के लिहाज से आप नए प्रतिमान गढ़ सकी हैं। यह उपलब्धि है। इसके लिए बधाई के साथ ही यह सवाल भी कि एक लेखिका के लिए भाषा बड़ा टूल है या विचार?
0 लेखन के लिए भाषा बड़ा टूल है। सशक्त भाषा और शिल्प के द्वारा ही लेखक आज की संश्लिष्ट संवेदनाओं, विडंबनाओं और जटिल यथार्थ को अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो सकता है।

- बतौर लेखिका आप ऑब्जर्वेशन और इंप्रोवाइजेशन, में से किसे कथा रचना के लिए ज्यादा ज़रूरी समझती हैं?
0 मैं कथा लेखन में ऑब्जर्वेशन को ज्यादा ज़रूरी मानती हूँ।

Tuesday, February 15, 2011

बिना पते और स्टैंप के एक चिट्ठी

गुज़रा हुआ प्रेम बिसार पाना मुश्किल होता है, तक़रीबन नामुमकिन। कोई जगह, कोई लमहा सबकुछ लेकर आ जाता है सामने। यादों की ऐसी ही एक पोटली…एक चिट्ठी, उसके नाम, जो जिस्म से साथ नहीं है पर यादें अश्क बनकर आंख में मौजूद हैं और धड़कन की शक्ल में दिल के बीच ज़िंदा…। फिज़ाओं में प्यार की खुशबू बिखरी हुई है। फूलों, तोहफ़ों और मुस्कराहटों के मौसम में मिला है यही खत, जो अपने पते तक पहुंच नहीं पाया अब तक…।



सुनो,
तुम्हें जो लिखी थीं, वो चिट्ठियां पुरानी हो चुकी हैं…कुछ ज्यादा ही ज़र्द। पीली पड़ गई हैं चिट्ठियां। इन पर कोई स्टैंप भी तो नहीं है। बस बिना लिफाफे के यहां-वहां रखी हैं। रजिस्टरों में, डायरियों में और हां, एक तो कोट की अंदर वाली जेब में भी रखी है। वहीं सूखे गुलाब के साथ तुमने रख दी थी। मस्त हैं ना यार हम दोनों। और चिट्ठियां भी क्या…कहीं, किसी लाइन में तो आईलवयू नहीं लिखा। कंजूस! कहीं-कहीं तो अनामिका स्याही में डुबाकर लकीर भर खींच दी। पूरा, सादा पन्ना और कोने में खिंची लकीर, लेकिन मैं सबकुछ पढ़ लेता हूं। कितनी ही लालसा, इच्छाएं, इंतज़ार और अब बस…एक ठंडी सांस।
ऐसी ही एक लकीर मैंने भी खींच दी थी तुम्हारे दाएं गाल पर। चिहुंक उठी थीं तुम—धत…ये क्या करते हो। मैं भी तो कितना शैतान था, होली है भाई होली है…और रंग नहीं तो क्या हुआ…स्केच पेन तो थी हाथ में। तुम भी ग़ज़ब…दो दिन तक स्याही धुली ही नहीं। सहेलियां चिढ़ा-चिढ़ाकर पूछतीं—क्या है ये और तुम बस मुस्करा देतीं। मुझे मौसमी चटर्जी अक्सर याद आती है। मुस्कराते हुए हंसी छलका देने वाली। तुम्हारी जुड़वा तो नहीं है ना?
उफ़…अब क्या हुआ। फिर तुनक गईं। दो-चार महीनों का साथ कितना छोटा था। देखो, गुज़र गया। रूठने-मनाने में। कल शाम की बात बताऊं। बस स्टैंड पर खड़ा था। तेज़ हवा चली, लगा जैसे—शॉल उतारकर ढक दोगी। पर कहां हो तुम…। ठिठुरते हुए खड़ा रहा…कानों में गूंज रही थी खनकती हंसी। बिना बात के हंसने की कला कोई तुमसे सीखे। उल्लुओं और पाजियों की तरह…। देखो, मैं भी तो हंस पड़ा हूं तुम्हारे साथ-साथ।
लो…गुज़र गई एक बस। टूटी-फूटी, इसकी खिड़कियों पर कांच नहीं हैं। हवा के साथ कदम मिलाते हुए उड़ी जा रही है। आज तुम होतीं, तो हम दोनों फिर बैठ जाते ना इसमें। ऐसे सफ़र पर चलने के लिए, जिसका कोई ठिकाना ना हो। बस जेब में जितने पैसे होते, उतने कंडक्टर को थमाकर और जब थक जाते, तो बीच राह में उतर जाते। सस्ते से किसी ढाबे में कुछ खाने और उससे ज्यादा बातें करने।
हूं, याद आया उस कॉफी का टेस्ट। कड़वी कॉफी। उसके भी हम सत्रह रुपए चुकाते थे, लेकिन ग़ज़ब की दोस्ती निभाई। हम घंटों उसी सहारे तो जमे रहते थे। और चाय भी तो…किचन में तुम घुसतीं और मैं बुलाता—सुनो, लिपटन की चाह है क्या? तुम तुनकतीं—दादा कोंडके मत बनो, समझे।
कैसी-कैसी तो बेगैरत रातें थीं। जब आतीं, तो सता जातीं। सारी रात मोबाइल पर…पता नहीं कैसी-कैसी बातें। मूवीज़, लिट्रेचर, पोएट्री, मंटो-किशोर कुमार…ग़ज़ब-ग़ज़ब के कॉम्बिनेशन, ना ओर ना छोर…लेकिन तुम भी ना…आई लव यू नहीं बोला बस। लगातार डिस्चार्ज होती बैट्री और सॉकेट में चार्जर लटकाकर बस बातें करते जाना। यार-दोस्त पूछते भी—क्या बातें करते हो तुम दोनों? क्या जवाब देता उन्हें?
हमारी शादी नहीं हुई। चलो, अच्छा ही हुआ। नहीं क्या? हो जाती, तो तुम मेरे ड्रेसिंग सेंस पर खूब चुटकुले सुनाती। कमेंट्स पास करतीं…लेकिन ऐसा क्यों कहूं…तुमने ही तो मुझे बताया था—कपड़े सुंदर नहीं होते, इंसान होता है। मैं खुद को गांव वाला कहता और तुम हंस पड़तीं—बहुत चालू हो। ये सब इमोशनल ब्लैकमेलिंग है बस्स। थैंक्यू बोलूं क्या? सॉरी-सॉरी, यूं ही मुंह से निकल गया। पिटने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
एक कन्फेशन करूं। तुम्हारे जाने के बाद मुझे फिर प्यार हो गया है। नहीं-नहीं, कुछ ऐसा-वैसा मत सोचना। तुम्हारी यादों से प्यार कर बैठा हूं यार। खूब रोया, मिस करता रहा। अक्सर फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर देखता हूं तुम्हें। मोबाइल में साल भर पुरानी तुम्हारी मिस्ड कॉल्स पड़ी हैं। उन्हें देखता हूं, तारीख़ वाले कोने पर से झट आंख भर हटा लेता हूं। सोचता हूं—कल ही तो तुमसे बातें हुईं थी रात भर।
तुम नहीं हो। तारीखें गुज़रती जा रही हैं। सच बोलूं, तो ज़िंदगी के बारे में सोचते ही जी कहता है…हूं…कुछ तो है जो अपनी-सी रफ्तार से गुज़र रहा है। कितनी ही प्रेम-पातियां लिखीं तुम्हारे लिए पर कभी पोस्ट नहीं कीं, ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अब पता है, तुम्हें भेज सकता हूं, लेकिन कहां…कोई ठिकाना नहीं, जहां कोई रिसीव कर ले ये लेटर्स…। फिलहाल, चिट्ठियां बैरंग हैं, इन पर नेह का टिकट लगाया नहीं जा सका। अब जिसे भी मिलेंगी, वो मेरी नहीं है, कह के लौटा ही तो देगा…।
ऐसे हाल में कुछ तो सलाह दो। शायद फूट-फूटकर रोना चाहिए, लेकिन मैं अक्सर हंस पड़ता हूं। कल ही खूब हंसी आई। तुम्हारी बॉलकनी के नीचे से गुज़रते हुए ऊपर निगाह डाली। तुम नहीं थीं वहां, तभी किसी ने पुकारा। पता है—चाय वाला था। हमने बहुत से कप भर-भरकर चाय पी थी ना वहां। कुल 115 रुपए का हिसाब बना था। ख़ैर, मैंने दे दिए हैं। अब बकाया नहीं है। वैसे ही, तुम पर भी मेरा कुछ शेष नहीं है। हम दोनों चुका चुके हैं, जो कुछ लेन-देन था। हां, प्यार नहीं चुका। उसे चुकने भी ना देना। हर बार प्यार का मतलब साथ तो नहीं होता…और फिर साथ तो हम हैं ही। जिस्म की भला क्या बिसात…दूर है तो दूर सही…।

I-NEXT में प्रकाशित

Sunday, February 13, 2011

एक प्रेमी के नोट्स


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प्यार ना प्यास है, ना पानी। ना फानी है, ना रूहानी। मिठास है, तो कड़वाहट भी। बेचैनी है तो राहत भी। पहला प्यार अक्सर भोला होता है। भले ही उम्र पंद्रह की हो या फिर पचपन की। कैसे-कैसे अहसास भी तो होते हैं पहले प्यार में। एक प्रेमी के नोट्स पढिए, इस वैधानिक चेतावनी के साथ-इनसे इश्क का इम्तिहान हल नहीं होगा, क्योंकि हर बार नए सवाल पैदा होते हैं-




संयोग के दिन

तुमसे मिलने के बाद पहला जाड़ा
सुबह के चार बजे हैं। बाहर तेज हवा चल रही है, फिर भी खिड़कियों पर टंगे परदे हिल नहीं रहे। थमे हैं। सन्नाटा अक्सर रह-रहकर शोर के आगोश में गुम हो जाता है। तेज हवा का शोर। दरवाजा खटखटाए बिना ठंड कमरे में घुस आई है पर मैं तो गर्म हूं...एक शोर मुझमें भी है। सीना धक-धक के साथ गूंजता है पर रजाई पुरानी पड़ जाने के बाद भी सर्दी नहीं लग रही। कल शाम तुम्हारी हथेलियों में जकड़ा मेरा दाहिना हाथ अब तक तप रहा है, जैसे!

लाल रंग का वो छोटा-सा छाता
सुबह से बारिश हो रही है। मैं भीग रहा हूं एक बस स्टैंड की ओट में खड़े होकर। कपड़े सब सूखे हैं पर अंदर कहीं कुछ बहुत गीला हो चुका है। यकायक घड़ी देखता हूं- तीन बज चुके हैं। तुम जाने वाली होगी। मैं भागता हूं। फिसलता हूं। कीचड़ में गिर गया हूं मैं और अब मिट्टी से लबालब। हाथों से अपना चेहरा पोंछने की नाकामयाब कोशिश करता हूं। मिट्टी महक रही है, तुम्हारे बालों में लगे चमेली के तेल सी। मेरा दौड़ना जारी है और घड़ी की सुइयों का भी। सवा तीन बज चुके हैं। तुम्हारी बस रेंगने लगी है। खिड़की से झांकतीं तुम्हारी लालची आंखें। तुम हाथ बढ़ाती हो और थमा देती हो—एक छोटी-सी लाल रंग की छतरी!

नहीं आता था पतझड़
पेड़ को छोड़ रिस रहा है एक-एक पत्ता-पत्ता। दरख्त ठूंठ बन चुके हैं, लेकिन मैं यकायक लहलहा उठा हूं। घर के सामने एक पीपल का पेड़ है। वो मुझे बुलाता है, उसे मैं छूता हूं और लगता है-तुम्हारी खुरदरी एडियों से एक लता फूटी है और मेरे इर्द-गिर्द लिपट गई है। तुम हंसती हो—बस, तुम यूं ही जड़ बने रहना।

लो मिल लो, ये हैं श्रीमान वसंत...

छोटा-सा स्टूल है और बेशुमार चिट्ठियां  हैं। शायद पांच-सात साल पुरानी। बार-बार पढ़ रहा हूं। एक-एक चिटी लगता है, तुमने ही लिखी है। रात नागफनी का गमला खिड़की के बगल रखा है, उसमें खिल गई है गुलाब की कली।

जाती हुई रात, आ रहे सूरज के घोड़े


गर्मी आ गई है पर दिन भर ही रहती है। रातें उमस भरी ठंडी हैं। भोर के पांच बजे हैं और मैं तुम्हारे घर के पास लगे लैंपपोस्ट के नीचे मौजूद हूं। ना सूरज उगा है, ना चांद ढल सका है। लैंपपोस्ट का बल्ब भी टिमटिमा रहा है। आसमान पर जाती हुई रात की लाल-लाल डोरों वाली आंखें हैं और धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है सूर्य के घोड़ों के चलने की आवाजें। अलसाई आंखों के इशारे से जैसे घर का दरवाजा हटाती हो तुम... कुछ झुंझलाई हुई सी। 

वियोग की रातें...

जाने के बाद का जाड़ा
दोपहर आने को है। सुबह कई महीनों से नहीं देखी। हाथों से सिगरेट के कई बरबाद टोटों की महक आ रही है। नुक्कड़ पर अलाव जल रहा है। सोचता हूं—हाथ सेंक लूं। तुम पूछोगी कि फिर से सिगरेट पी, तो बहाना बनाऊंगा—नहीं, अलाव पर हाथ रखे थे। ... पर तुम तो हो नहीं। यकायक, थरथराने लगा हूं। नसें ज्यूं जम रही हैं। खड़े-खड़े गल जाता हूं।

पिघलती हुई रूह

यह वही शहर है, जहां हम मिले। टिन की छत पर बहुत बड़ी-बड़ी बूंदें गिर रही हैं। बाहर आ जाता हूं, भीगने का मन है। तुम नहीं, तो गम नहीं, अकेले ही भीग लूंगा...पर कर नहीं पाता। बूंदें ज्यादा बड़ी हैं। सिर पर टप-टप गिर रही हैं। कानों में हवा भर रही है। सांस फूल जाती है और मैं भीगा हुआ लबालब घर के अंदर हूं...इस दफा कपड़े भीगे हैं पर मन भभक रहा है, धुआं बहुत ज्यादा नहीं हो गया क्या...और ताजा हवा बिल्कुल नहीं।

पतझड़ और वसंत की दोस्ती

वसंत बहुत दिन से नहीं आया। दगाबाज है। किसकी तरह पता नहीं। शायद हम दोनों जैसा ही साबित हुआ। उसने पतझड़ से दोस्ती कर ली है। तुमने मचलती हुई उंगलियों से धनिया के बीज रोपे थे और नींबू का पौधा लगाया था। खट्टा-खट्टा कितना अच्छा लगता था हम दोनों को। ब्रेड पकौड़े अब भी बनते हैं बुतरू की दुकान पर, लेकिन तुम्हें पता है—हमारे घर के पिछवाड़े की धनिया और नीबू, दोनों सूख चुके हैं।

जल जाऊंगा, थोड़ा-सा पानी है क्या
उमस बहुत है। सांस लेनी भारी लग रही है। लगता है—कोयले की भटी से निकली राख सीने में अटक गई है। कोला में बर्फ डालकर शराबी होने की नाकामयाब कोशि श कर रहा हूं...बेकार है, बेअसर है। गोलगप्पे भी ताजा नहीं कर पा रहे, पुदीना भी नहीं। तुम आओगी क्या...होंठों के एकदम करीब, बस अपनी सांसों से मेरी आंखों में फूंक मार देने के लिए देखो, नाराज ना होना। किचन में फुल क्रीम दूध का पूरा पैकेट पड़ा है और तुम्हारी पसंदीदा लिपटन की चाय भी। हा हा हा। खैर, ना हो तो एक ग्लास पानी ही दे दो। जल रहा हूं।