कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, November 20, 2011

रामकुमार सिंह की गिलहरी का फ्री-हैंड रिव्यू

रामकुमार की गिलहरी की फ्री-हैंड समीक्षा
एक अक्सरहा सुना शेर है, कुछ यूं — बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर वे भी हम जैसे हो जाएंगे। बात एकदम सही है, लेकिन बचपन जैसे ही जवानी तक पहुंचने के आधे रास्ते तक पहुंचकर ठिठकता है, गोया किशोर होता है, उसके मन में बहुतेरी उत्सुकताओं के बवंडर मचलने लगते हैं। अफ़सोस… साधारण-सी उत्सुकता का हल साफतौर पर, सही तरीके से कभी नहीं मिलता। नैतिकता के कितने ही पैबंदों में उलझा जब कोई समाधान सामने आता है, तो उसमें धज्जियों की भरमार ऐन सामने होती है। `वह’, यानी एक गंवई किशोर की कहानी भी इससे ज़ुदा नहीं है। बच्चा जब जानना चाहता है कि उसका जन्म कैसे हुआ, तो पता चलता है — `माँ ने चावल खा लिए थे. रात को उसके पेट में भी दर्द हुआ. अगली सुबह वह खेत पर नहीं जा पाई थी. उस दिन वह पैदा हो गया था’. वह दौर, जब `वह’ ननिहाल में मौजूद भूरे कुत्ते को टहलाता, खिलाता, खिजाता बड़ा हुआ था, इन दिनों 11 साल का होने पर कलिंग की लड़ाई के संदर्भ और लोकसभा की सीटों और विज्ञान की किताब से निकालकर परागण, नर और मादा के भेद को पढ रहा था, तब बच्चे कैसे पैदा होते हैं, इसके जवाब में उसे चावल खा लेने से बच्चा होने की परिभाषाएं समझाई जा रही थीं…हालांकि `ज्योंही स्कूल की छुट्टी होती तो उसके गली के गुरु सक्रिय हो जाते’। इन्हीं दिनों में वह `कई नई बातें सीख रहा था’. घर में आई भाभी `गोरी गोरी-सी. मखमली-से गाल’ वाली। सहपाठी बताते कि ‘तेरा भाई, तेरी भाभी के साथ सोता है.’ और इसी बीच `वह’ जान पाता कि जब दो लोग साथ सोते हैं, तब `इसी से बच्चे पैदा होते हैं’। गली के गुरु उससे उम्र में कुछ महीने बड़े हैं और वह भले ही अब तक सोचता रहा था कि `बच्चे पैदा होने से रोकने हों तो त्योहार के दिनों में चावल नहीं खाने चाहिए’, लेकिन अब उसका ‘पॉइन्ट ऑव व्यू’ भी बदल रहा था। इसी बीच `वह’ एक और ज्ञान प्राप्त करता है कि साथ सोना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि `शिव भगवान और पार्वती ने ऐसा कहा है.’। नई-नई बातों के बीच बकरियों को तंग करते बकरों को देखते हुए साथी बनवारी एक अलग ही समझदारी दिखाता है ‘ओए राजू, आदमी भी स्साला औरतों को इसी तरह परेशान करता है.’ और राजू को वह ये भी बताता है कि `हेमू चाचा दारू पिए हुए थे. चाची के कपड़े खींच रहे थे.’ ‘कभी गौर से देखना, हेमू चाचा की शक्ल इस बकरे से मिलती है.’
… कुछ तो गंदा था इसमें। क्या और कितना, राजू नहीं जानता। इस बीच `उससे उमर में चार पांच साल ही तो बड़ी’ भाभी उसे एक अलग ही प्रदेश में ले जाती हैं। कितनी ही सुप्त कामनाओं, उत्सुकताओं और रोमांच के वर्जित प्रदेश में। एक अलभ्य, बहु-प्रतीक्षित दर्शन-सुख के इस प्रदेश के बाद राजू और बनवारी योजना बनाते हैं– राजू के दिमाग में एक ही बात चलती है — ‘शिवभगवान, पार्वती का आदेश और चिपमचिपा.’ … बात यहीं खत्म नहीं होती। `अगले दिन भाभी की पीठ पर उनका सामूहिक हमला होने वाला था’।
ख़ैर… मैं भटक गया। यह सब एक कहानी का बयान है, शीर्षक है `गिलहरी’, जिसकी पूरी कथा ही मैं सुनाने में अटक गया था। लिखना ये चाहता था कि बहुत अरसे बाद कोई रोचक और अद्भुत कहानी पढ़ी है। जो पहली बार में शुद्धता और नैतिकतावादियों को अश्लील लगेगी। यक़ीनन और पुरज़ोर लगेगी, लेकिन जिन्हें प्रेम, देह, लालसा, उत्सुकता और बचपन की छानबीन खुले दिमाग से करने का मन होगा, वे इस कहानी को सह पाएंगे। कहानी लिखी है रामकुमार सिंह ने। रामकुमार जी से महीने में एक-दो-तीन बार मिलना होता भी है। उनकी कुछ कहानियां पहले भी पढ़ी हैं, लेकिन इस बार भाषा, ट्रीटमेंट और कथ्य की बुनावट के लिहाज से वे पुराने लेखन पर भारी पड़े हैं।
रामकुमार जयपुर में रहते हैं। एक अखबार में काम करते हैं। दो-तीन फिल्मों में कहानियां और गीत का डिपार्टमेंट संभाल चुके हैं….पर यह उनका सामान्य-सा परिचय है। सच तो ये है कि रामकुमार प्रचार और संपर्क जुटाने से कतिपय दूर, एक बेहतरीन लेखक हैं। कहानियों के मामले में कम से कम बहुत बेहतरीन। बाकी का काम भी अच्छा है।
कुछ ज्यादा ही उत्साहित हूं, इसलिए बार-बार भटक रहा हूं। गिलहरी कहानी की भाषा पर कुछ कहने का भी मन है। यह कहानी मुहावरों, शब्द संरचना-चमत्कार-इमेज़री-विज़न-
इफेक्ट्स-कोलाज से दूर है। सीधी-सपाट, शायद इसीलिए सीधा असर करती है। रामकुमार की भाषा में `विट’ है और यह अक्सर हंसाते हुए परेशान भी करता है, तब वे तीखी बातें सीधे-सरल तरीके से कह जाते हैं। इस तथाकथित रिव्यू में इन्वर्टेड कॉमा `’ में शामिल सभी वाक्य कहानी गिलहरी से कॉपी किए गए हैं. प्रमाण सामने है, देख लीजिए।
खास बात एक और बाकी है। गिलहरी यहां प्रतीक है। एक पेड़ की डाल से कूदकर दूसरे पर चढ़ने की कोशिश में कुत्ते के मुंह में समाती हुई गिलहरी। और उसकी जान ख़तरे में इसलिए है, क्योंकि किसी ने उसे बताया था कि गिलहरी के सिर में चवन्नी छुपी होती है। शायद ऐसा ही कुछ। क्या स्त्री का रूप-सौंदर्य-देह भी ऐसी ही है। ऐसा ही आकर्षण? और पुरुष यहां किस रूप में मौजूद है? हो सकता है– रामकुमार ने ऐसा न सोचा हो… और यह मेरा शरारती दिमाग हो…।
कहानी चौंकाती है अपने क्लाइमेक्स के ज़रिए। एक किशोर नहीं जानता कि क्या वर्जनीय है, लेकिन जिस तरह राजू की मृत्यु होती है, वह तो संकेत ही है — अंधेरे गलियारे में ठोकर लगती है। बिना किसी नैतिक शिक्षा के यह कहानी हाजिर है, कई तहों को टटोलती हुई। व्यंग्य, चुटकियां, चिंता के अनेक पुटों के साथ।
गिलहरी में हम ढेरों प्रतीक देखते हैं। कहीं स्पष्ट तो कहीं कथ्य के संग गुंफित। यहां जो गांव है, वह पूरी तरह उन्मुक्त है और ठीक उसी हद तक बंधा हुआ भी। रामकुमार को बधाई इस बात की भी दी जानी चाहिए कि वे बंद निगाह और ठस, जकड़े दिमाग के साथ सबकुछ पवित्र-पवित्र नहीं बताते रहते। गिलहरी बालपन से उबरे, उम्र में बढ़े और दिल से ठहरे हुए बचपन में मन की बहुत-सी परतें खोलती है और उतना ही हमें उलझाती भी है। गिलहरी के कूदने से रोमांचित हुए राजू की दोस्त कोई लड़की हो सकती है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। प्रश्न ये भी नहीं है कि `नरम और गुनगुना’ और `रुई के फाहों की तरह हवा में तैरते बादलों’ का ज़िक्र दरअस्ल, किन चीजों के लिए किया गया है और ये अश्लील-श्लील के आईने में कितने फिट होते हैं, सवाल बस एक है — नैतिकता के मायने इतने रूढ़ क्यों हैं कि सहज उत्सुकताओं को गिलहरी की मौत मरना पड़ता है।
* रामकुमार शायद हंसेंगे मेरी इस राय पर, लेकिन मेरी नज़र में गिलहरी को सेक्स एजुकेशन की पाठ्य सामग्री में शामिल किया जाना चाहिए।
- बहुत पहले प्रियंवद की कहानी खरगोश पर बनी टेलीफिल्म देखी थी। बेहद उम्दा उस कहानी के बाद रामकुमार की गिलहरी पढ़ना रोमांचक है। दोनों कहानियों में ऐसे ही अनदेखे-छुपे संसार के लिए कौतूहल और नायिकाओं के कदरन समान व्यवहार का हवाला है, लेकिन गिलहरी का अंत और अलग भावभूमि, क्षेत्र और ट्रीटमेंट, खासतौर पर क्लाइमेक्स इसे खरगोश से अलग करता है। यूं, दोनों की तुलना नहीं है। महज ऐसी ही एक कहानी याद आई, इसलिए ज़िक्र किया। मुझे यकीन है कि मेरा नाम जोकर में अपनी टीचर को चाहने वाला ऋषि तो प्रियंवद और रामकुमार के दिमाग में नहीं रहा होगा… क्योंकि ऐसा बचपन तो हम सबका होता है… एक-सा। तमाम दुत्कारों, वर्जनाओं, कल्पित कहानियों के बावज़ूद, कहीं-कुछ टटोल-तलाश लेने की होड़ में भागता और अक्सर बिंधता हुआ।
श्लील-अश्लील के चश्मे पहनने वालों से क्षमा याचना सहित एक सुझाव… गिलहरी ज़रूर पढ़ें। अच्छी कहानी है। मुझे यह कहानी पढ़ते हुए मंटो की मुतरी भी याद आई… क्यों, शायद वहां मूत्रालय में लिखे हुए संवाद भी अतृप्त मन की परतों से बहकर कहीं उभर आए होंगे।

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2 comments:

मनोज कुमार said...

समीक्षा प्रभावित करती है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सधी हुई सटीक समीक्षा ......