कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, December 31, 2011

कभी तनहाइयों में ‘मुबारक’ याद आएंगी?

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित एक लेख...



-    चण्डीदत्त शुक्ल
 chandiduttshukla@gmail.com

महबूब के लबों ने चूमीं अंगुलियां। पलकें मीचीं, आंखों से छलके आंसू और थरथराने लगे होंठ... यही तो है मोहब्बत। फिर एक पल ऐसा भी आया, जब जिसे चाहा, वही ज़ुदा हो गया। ऐसी हालत में दूर कहीं से किसी बिरहन की तान आकर कानों में समाई। ये सुर लहरी है मुबारक बेगम की, जिसे सुनकर पिछले साठ साल से आशिकी में गिरफ्तार दिल आंसू बहाते रहे हैं, पर अफसोस,  `कभी तनहाइयों में भी हमारी याद आएगी’ जैसे नग्मे को मौसिकी का पैरहन देने वाली मुबारक बेगम का पुरसाहाल कोई नहीं है।

क्या आप मिलना चाहेंगे मुबारक बेगम से? मुंबई के एक भीड़भाड़ भरे इलाके—जोगेश्वरी के ग्रांट रोड में कबूतरखाने जैसे छोटे-से घर में सुरों की ये मलिका ज़िंदगी के बचे-खुचे दिन काटने को मज़बूर है। कभी रेड कारपेट पर कदम रखने वाली मुबारक को कहीं जाना होता है तो अपने कमजोर पांव घसीटती हुई सड़क तक जाती हैं और भीड़ का एक गुमनाम हिस्सा बनकर चुपचाप किसी वाहन के गुजरने का इंतज़ार करने लगती हैं। उनकी आंखों में बुढ़ापे की धुंध नहीं, शिकायत भरी पुकार है। मुबारक ज्यादा नहीं बोलतीं, लेकिन उनकी रग-रग चीख-चीखकर कहती है – आप मानें या न मानें, मेरे कातिल आप हैं!

एक-एक गीत की शूटिंग, म्यूजिक कंपोजिशन और रिकॉर्डिंग पर करोड़ों खर्च करने और `कोलावेरी डी’ के शोर में डूबी फिल्म इंडस्ट्री ने बेगम को भुला दिया है। `मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही...’ और `कुछ अजनबी से आप हैं...’ जैसे गीत जीवंत करने वाली मुबारक बेगम को महाराष्ट्र सरकार की ओर से डेढ़ हज़ार रुपए की पेंशन मिलती है। कई बार बिजली का बिल भरने के पैसे तक पास में नहीं होते। महाराष्ट्र सरकार ने एक लाख रुपए की सहायता राशि देने की बात कही थी, लेकिन दो महीने बाद भी इस घोषणा पर कोई अमल नहीं हुआ है।

मुबारक ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उनकी दोस्ती अक्षरों से नहीं हो सकी, पर इल्म से नाता ऐसा जुड़ा कि दरकती सांसों के बीच भी बरकरार है। दादा अहमदाबाद में चाय की दुकान करते थे। अब्बा फलों की ठेली लगाते थे, लेकिन उस्ताद थिरकवा खान साहब के शागिर्द भी बन गए थे। कुछ दिन बाद वे मुंबई आ गईं। किराना घराने के उस्ताद रियाजुद्दीन खान और उस्ताद समद खान साहब ने उन्हें विधिवत शिक्षा दी। फिल्म `आइए’ के लिए मुबारक ने पहला गीत `मोहे आने लगी अंगड़ाई...’ रिकॉर्ड कराया और फिर पारंपरिक तरीके से कहें तो – पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मुबारक ने फिल्म `फूलों के हार’, `मेरा भोला बलम’ (फिल्म-कुंदन),  `देवता तुम मेरा सहारा’ (दायरा), `जल जल के मरूं’ (शीशा),  `हम हाले दिल सुनाएंगे’ (मधुमती),  `क्या खबर थी यूं तमन्ना’ (रिश्ता) जैसे कई गीत गाए, जिनकी तान के साथ हिंदुस्तानी मन उफान भरता रहा है, तड़पता-सिसकता, लरजता और खुशगवार होता रहा है।

कहते हैं, बॉलीवुड की एक बड़ी गायिका मुबारक की लोकप्रियता से इस कदर खौफज़दा हुईं कि उन्होंने संगीतकारों को ताकीद की – मुबारक को अब और मौके न मिलने चाहिए। ऐसा ही हुआ भी। हमराही, जुआरी, ये दिल किसको दूं, सुशीला, मोरे मन मितवा, मार्वल मैन, शगुन, खूनी खजाना, सरस्वतीचंद्र सरीखी कामयाब फिल्मों में गायन करने के बावज़ूद मुबारक को नए अनुबंध मिलने बंद हो गए। गुमनामी के भंवर में घिरी मुबारक जब-जब बीता वक्त याद करती हैं, तब उनकी आंखों से आंसओं की बारिश होने लगती है। विविध भारती में कार्यरत यूनुस खान कहते हैं – ये दुर्भाग्य ही है कि ऐसे नगीने को अंधेरों में ही घुटना पड़ रहा है।‘

अधेड़ उम्र की, पर्किंसन जैसी बीमारी झेल रही बेटी और पोतियों के साथ मुबारक सीलन भरे एक छोटे-से कमरे में रहती हैं। उनका बेटा टैक्सी चलाता है। रोज बच्चों को स्कूल छोड़ने ले जाता है। काश! हमारे सरकारी नुमाइंदे भी कभी उस टैक्सी में लिफ्ट लेते, किसी स्कूल तक जाते तो इल्म की थोड़ी-सी रोशनी उनकी भी निगाह में भर जाती और वे बीमारी और गरीबी से जूझ रही मुबारक बेगम का हाल ले पाते।

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