कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, February 17, 2012

ज़िंदगी हो कलाकृति की तरह, हम बन जाएं कलाकार

-         चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345

 

ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय... कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए। सच... ज़िंदगी की पहेली हल करना बहुत मुश्किल काम है... लेकिन जीवन को उलझन मान लेने से तो हल निकलेगा नहीं... फिर क्या किया जाए?  क्यों न, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज़, जिससे ज़िंदगी खूबसूरत हो जाती है... खुशनुमा बन जाती है...

सोचिए, ज़िंदगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तस्वीरें अपनी रंगत बिखेरती नज़र आएंगी।

 

ज़िंदगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप एक कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन का सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में महसूस करें।

एक श्लोक बचपन में सुना था साहित्य संगीत कला विहीन:

साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीन:। इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है...।

सत्यम्, शिवम्, सुंदरम का ज्ञान भी यही है। सुंदर और शुभ का बोध कराने वाला... यानी जो सुंदर है, वह शुभ है और वही सत्य है... और यकीनन, ये कला ही तो है। ज़िंदगी को ज़िंदादिली के साथ महसूस करने, उसे आगे बढ़ाने की कला। कोई अच्छी तसवीर देखते हुए नज़रों से होते हुए दिल तक बह चली खुशी की गंगा आखिर कहां से फूटती है? एक सुंदर कलाकृति आखिरकार, सुंदर कब होती है... तभी तो, जब उसमें सच्चाई हो, सुंदरता हो और वह हमारी ज़िंदगियों से जुड़ी हो।

 

जीवन में कला कितनी ज़रूरी है... इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का ज़माना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से अपनी बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता... लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।

 

सोचने वाली बात है... हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं?  क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए?

और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। सच तो ये है कि जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव बना नहीं रहेगा, हम ज़िंदगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। यूं, ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए... जरूरी ये है कि कला-साहित्य और संगीत के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उसे सराहने का भाव पैदा किया जाए।

 

एक बहुत पुराना किस्सा याद आता है... एक बहुत बड़े संगीतकार किसी महफिल में गायन कर रहे थे। कुछ लोग बार-बार वाह-वाह कह रहे थे। उन्होंने गायन बीच में ही बंद कर दिया।  आयोजक ने गायक महोदय से सवाल पूछा कि आपने कार्यक्रम रोक क्यों दिया। गायक ने विनम्रता से कहा गलत जगह पर मिली तारीफ निंदा से कम नहीं होती।

 

अब ये सवाल हमारे लिए है... क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है?  कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंख में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं। कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं... अगर हां तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िंदगी हमारे लिए प्यार का गीत है... लेकिन जवाब न में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है... ये ज़रूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िंदगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी...इसकी चमक कुछ और ही होगी।

 

(जयपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम चिंतन के लिए तैयार आलेख का मूल पाठ)

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