कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, July 24, 2012

एक उदास कविता

एक उदास कविता

सबसे बुरा है
उस हंसी का मर जाना
जो जाग गई थी
तुम्हारी एक मुस्कान से.

जमा हुआ दुख
पिघला,
आंख से आंसू बनकर,
तुमने समेट ली थी
पीड़ा की बूंद
अंगुली की पोर पर.

वह सब मन का तरल गरल
व्यर्थ है अब,
जैसे लैबोरेट्री की किसी शीशी में रखा हो
थोड़ा-सा निस्तेज वीर्य, ठंडा गाढ़ा काला खून
या देह का कोई और निष्कार्य अवयव।

खिड़कियों के बाहर
कुछ दरके हुए यकीन लटके हैं
चमगादड़ों की तरह बेआवाज़
शोर करते हैं
झूठे वादे।

कविताएं सिर्फ गूंज पैदा करती हैं
नहीं बदलतीं किस्मत
जैसे कि
प्रेम का लंगड़ा होना
उससे पहले से तय होता है,
जब पहली बार वह भरता है,
दो डग हंसी की ओर।

चलती रहती है
इश्क की सांस
तब
मन के उदर में पलता है कविता का भ्रूण
और खा जाता है एक दिन
वही कोमल एहसास
इच्छा का राक्षस।

ढल जाता है साथ देखा गया ठंडा चांद
गमलों के इर्द-गिर्द उगती रचनाएं
कुम्हलाई पत्तियों की राख में हैं पैबस्त
एक उदास आदमी चीखता हुआ कोसता है खुद को
कहते हुए,
क्यों नहीं है मेरे प्रेम में ताकत?
कैसे घुल-सी गई एक बार फिर
`सुनो, मेरी आवाज़ सुनो' की पुकार!

कौन बताए,
प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है
कभी नहीं रुकता कोई
सिर्फ प्रेम के लिए,
प्रेम के सहारे।

प्रेम की कहानियां
इच्छाओं के लोक में
बेसुरी फुसफुसाहट से ज्यादा औकात नहीं रखतीं।

विरह मिलन से बड़ा सत्य है
और बेहद खरी गारंटी भी
जिसके साथ धोखे की रस्सी से बुने कार्ड पर लिखा है-
टूटेगा मन, जो जोड़ने की कोशिश की।

बहुत पहले,
नाज़ुक हाथों को थामकर
लिखी थी एक गुननुगाहट,
पाखंड के
साइक्लोन ने
ढहा दिया रेत का महल।

समंदर किनारे प्रेम की कब्र बनती है,
ताजमहल हमेशा नवाबों के हिस्से आते हैं।
आज राजा
अंग्रेजी बोलते हैं,
चमकते अपार्टमेंट्स में होता है उनका ठिकाना
वहीं ऊंची बिल्डिंगों के बाहर,
कूड़ेदान के पास पॉलीथीन में लिपटे रहते हैं
कुछ सच्चे चुंबन, चंद गाढ़े आलिंगन और हज़ारों काल्पनिक वादे!


निर्लज्ज हंसी और बेबस आंसुओं
अपने लिए गढ़े नए नियमों,
दुत्कारों और आरोपों,
गाढ़े धूसर रंग की शिकायतों
और इन सबके साथ हुए असीम पछतावे के साथ
सब कुछ भले लौट आए
पर नहीं वापस आता,
राह भटका हुआ विश्वास।
छलिया आकाश ने निगल लिया है
एक गहरा साथ!
लुप्त हुई नेह की एक और आकाशगंगा,
प्रेम से फिर बड़ा साबित हुआ,
उन्माद का ब्लैकहोल!

प्रेम की अकाल मृत्यु पर आओ,
खिलखिलाकर हंसें।
हमारे काल का सबसे शर्मनाक सत्य है
मन की अटूट प्रतीक्षा से बार-बार बलात्कार।
कहने को प्रतीक्षा भी स्त्रीलिंग है,
लेकिन उससे हुए दुष्कर्म की सुनवाई महिला आयोग नहीं करता।

3 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

अब एक उदास कविता को पढ़ कर वाह वाह कैसे करूँ.....
आह!!!

प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है
कभी नहीं रुकता कोई
सिर्फ प्रेम के लिए,
प्रेम के सहारे।

बेहतरीन अभिव्यक्ति...
अनु

Unknown said...

बेहतरीन

Unknown said...

बेहतरीन